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________________ द्वितीयोऽध्यायः [ १११ प्रदेशैरसङ्ख्यातगुणं वैक्रियिकम् । ततोप्यसङ्खयातगुणमाहारकमिति कथितं भवति । तहि तैजसकार्मणे कथमित्याह अनन्तगुणे परे ॥ ३६॥ न विद्यतेऽन्तोऽस्येत्यनन्तो मानविशेषो रूढः । स चाभव्यानामनन्तगुणः, सिद्धानामनन्तभागो गुणकारोऽत्र गृहीतः । अनन्तो गुणो ययोस्तेऽनन्तगुणे । परे उत्तरे । पूर्वापेक्षया परत्वं द्वयोरप्यस्ति । ततो द्विवचनसामर्थ्यावे अपि पूर्वस्मादाहारकात्तैजसकार्मणे अनन्तगुणत्वेन प्रतीयेते । प्रदेशत इत्यनुवर्तते । तत्राहारकात्प्रदेशस्तैजसमनन्तगुणम् । तैजसात्कार्मणमनन्तगुणमिति विज्ञेयम् । नन्वेवं शल्यकवन्मूर्तिमद्रव्योपचितत्वात्संसारिजीवस्याभिप्रेतगतिनिरोधः प्रसज्यत इत्यत्रोच्यते अप्रतिघाते ।। ४० ॥ मूर्तस्य मूर्तान्तरेण प्रतिहननं प्रतिघातः प्रतिस्खलनं व्याघात इत्यर्थः । न विद्यते सर्वत्र प्रति तैजस और कार्मण शरीर के प्रदेश किस प्रकार के हैं ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं सूत्रार्थ-आहारक से आगे के शरीर प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त गुणे हैं । जिसका अन्त नहीं होता वह अनन्त है, वह एक माप विशेष है । वह अनन्त अभव्यों से अनन्त गुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण गुणकार वाला यहां पर ग्रहण किया है। "अनन्तगुणे" पद में बहुब्रीहि समास है । परे का अर्थ आगे का है पूर्व की अपेक्षा दोनों शरीरों को परत्व है, अतः द्विवचन की सामर्थ्य से दोनों का ग्रहण होता है अर्थात् पहले का जो आहारक शरीर है उससे तैजस कार्मण अनन्त गुणा है ऐसा प्रतीत होता है, प्रदेशतः का प्रकरण है, उनमें आहारक से तैजस प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त गुणा है और तैजस से अनन्त गुणा प्रदेशी कार्मण शरीर है । शंका-जिसप्रकार कील आदि के लग जाने से कोई भी प्राणी इच्छित स्थान पर नहीं जा सकता उसीप्रकार मूर्तिक द्रव्य से उपचित होने के कारण संसारी जीव की इच्छित गति के निरोध का प्रसंग आता है ? समाधान-अब इसीको कहते हैं सत्रार्थ-तैजस और कार्मण शरीर प्रतिघात रहित हैं । मूर्त का दूसरे मूत्तिक पदार्थ द्वारा घात-रुकावट होना प्रतिघात, प्रतिस्खलन या व्याघात कहलाता है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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