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________________ द्वितीयोऽध्यायः [ १०५ वैक्रियिकाहारकाख्यानि शरीराणि । षट्चाहारशरीरेन्द्रियानप्राणभाषामन संज्ञिकाः पर्याप्तीर्यथासम्भवमाहरतीत्याहारकः । नाहारकोऽनाहारकः कर्मवशादिषुगतौ तावज्जीव आहारक एव। पाणिविमक्तायामेकं वा समयमनाहारकः । लाङ्गलिकायां द्वौ वा समयावनाहारकः। गोमत्रिकायां त्रीवा समयान्नरन्तर्येणानाहारक. चतुर्थे तु समये सामर्थ्यादाहारको भवतीति प्राप्यते । कालवाचिनोपि समयशब्दान्न सप्तमी कालाध्वनोरत्यन्तसंयोग इत्यनेन द्वितीयाविधानात् । यद्येवं देहान्तरप्रादुर्भावलक्षणं जीवानां जन्म सिद्धं तदा के तद्विशेषा इत्याह ___ सम्मूर्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ।। स्वकृतकर्मविशेषादात्मनः शरीरत्वेन पुद्गलानां समन्तान्मूर्छनं घटनं सम्मूर्छनम् । स्त्रिय उदरे तीन समय तक अनाहारक रहता है ऐसा वा शब्द का अर्थ है । औदारिक, वैक्रियिक और आहारक नाम वाले तीन शरीर तथा छह आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन नामवाली पर्याप्तियां हैं, इन तीन शरीर और छह पर्याप्तियों में से यथा संभव शरीर और पर्याप्ति को ग्रहण करना आहारक है [ शरीर और पर्याप्ति के योग्य नो कर्म वर्गणा ग्रहण करना आहारक है ] और जिसके यह आहारकपना न होवे वह अनाहारक कहलाता है। कर्म के वश से पहली जो इषुगति है उसमें जीव आहारक ही रहता है । पाणिमुक्ता गति में एक समय अनाहारक रहता है। लांगलिका गति में दो समय तक अनाहारक होता है । गोमूत्रिका गति में तीन समय तक अनाहारक रहता है । इसप्रकार निरन्तर रूप से तीन समय तक अनाहारक होता है । चौथे समय में आहारक हो जाता है यह बात सामर्थ्य से ही प्राप्त होती है। यद्यपि एक आदि शब्द यहां पर एक समय आदि काल अर्थ में आये हैं और काल वाचक शब्द में सप्तमी विभक्ति होना चाहिये द्वितीय नियमानुसार काल और मार्ग का अत्यंत संयोग जहां विवक्षित होता है वहां द्वितीया विभक्ति होती है अतः सूत्र में "एकं द्वौ त्रीन्" ऐसा द्वितीया विभक्ति वाला निर्देश किया है । जीवों के शरीरान्तर की प्राप्ति होना जन्म है ऐसा सिद्ध है तो अब यह बताईये कि उस जन्म के कितने भेद हैं । अब इसी प्रश्न का उत्तर अग्रिम सूत्र द्वारा देते हैं सूत्रार्थ-सम्मूर्छन जन्म, गर्भ जन्म और उपपाद जन्म ये जन्म के तीन भेद हैं । अपने कर्म के विशेष से आत्मा के शरीरपने से पुद्गलों का सब ओर से घटन होना-ग्रहण होना सम्मूर्छन कहलाता है। स्त्रियों के उदर में शुक्र और शोणित का
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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