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________________ सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ।। १८ ।। लम्भनं लब्धिर्ज्ञानावरणक्षयोपशमे सत्यात्मनोऽर्थोपलम्भशक्तिरित्यर्थः । उपयुज्यत इत्युपयोगः । तस्यैवात्मनोऽर्थग्रहणव्यापार इत्यर्थः । लब्धिश्चोपयोगश्च लब्ध्युपयोगौ । तौ चेतनात्मक भावेन्द्रियं भवतः । तत्र भावेन्द्रियमेव मुख्यं प्रमाणं स्वार्थप्रमितौ साधकतमत्वाद्द्रव्येन्द्रियस्योपचारत एव प्रामाण्योपगमात् । उक्तानां द्विप्रकाराणामिन्द्रियाणां संज्ञानुपूर्विप्ररूपणार्थ माह स्पर्शनरसन घ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ।। १६ ।। पारतन्त्रयविवक्षायां स्पर्शनादिशब्दानां करणसाधनत्वम् । आत्मा स्पृश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम् । रस्यतेऽनेनेति रसनम् । घ्रायतेऽनेनेति घ्राणम् । आत्मा चष्टेऽर्थान्पश्यत्यनेनेति चक्षुः । श्रू श्रोत्रमिति । स्वातन्त्र्यविवक्षायां कर्तृ साधनत्वम् । स्पृशतीति स्पर्शनम् । रसतीति रसनम् । जिघ्रतीति घ्राणम् । चष्ट इति चक्षुः । शृणोतीति श्रोत्रमिति । स्पर्शनं च रसनं च घ्राणं च चक्षुश्च श्रोत्रं च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीति । एतानि स्पर्शनादीनीन्द्रियनामानि वेदितव्यानि । प्रतिनियतविषयत्वादिन्द्रियाणां भेद इति तद्विषयप्रदर्शनार्थमाह ९६ ] सूत्रार्थ - लब्धि और उपयोग भावेन्द्रियां हैं । प्राप्ति को लब्धि कहते हैं अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर आत्मा के पदार्थों को जानने की शक्ति का होना fब्ध है । उपयुक्त होना उपयोग है, अर्थात् उसी आत्मा के पदार्थ को जानने रूप क्रिया का होना उपयोग है । लब्धि और उपयोग इन दो पदों में द्वन्द्व समास है । लब्धि और उपयोग ये दोनों चेतनात्मक हैं इन्हीं को भावेन्द्रिय कहते हैं । जो भावेन्द्रिय है वही मुख्य प्रमाण है, क्योंकि स्वपर को जाननरूप क्रिया में यह साधकतम है, द्रव्येन्द्रिय के तो उपचार से प्रमाणता स्वीकार की जाती है । उक्त दो प्रकार की इन्द्रियों के नाम क्रम से कहते हैं सूत्रार्थ - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, और कर्ण ये पांच इन्द्रियों पांच नाम हैं । परतन्त्रता की विवक्षा होने पर स्पर्शन आदि सूत्रस्थ शब्दों के करण साधनपना होता है, जिसके द्वारा छुआ जाता है वह स्पर्शन है । जिसके द्वारा चखा जाता है वह रसना है । जिसके द्वारा सूंघा जाता है वह घ्राण है । आत्मा जिसके द्वारा पदार्थों को देखता है वह चक्षु, है, जिसके द्वारा सुना जाता है वह श्रोत्र है । स्वातन्त्र्य विवक्षा में कर्तृत्व साधन होता है— छूता है वह स्पर्शन है, चखता है वह रस है, सूघता है वह
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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