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________________ [ ७९ चारित्रमोहसम्बन्धिन्यश्चतस्रोऽनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभा इति । एतासां सप्तानां कर्मप्रकृतीनामुपशमात्काललब्ध्यादिहेतुको भव्यस्य पञ्चेन्द्रियस्य संज्ञिन: पर्याप्तस्य जीवस्योपशमिकः सम्यक्त्वपरिणामो जायते । निःशेषमोहोपशमात्तत्पूर्वकमौपशमिकं चारित्रं चाविर्भवतीति श्रौपशमिकस्य भेदद्वयं कथित द्वितीयोऽध्यायः व लोभ । इन सात कर्म प्रकृतियों का उपशम उन जीवों के संभव है जो कि कालादि लब्धियों से संपन्न है भव्य है, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक है, ऐसे बिशिष्ट जीव के उपर्युक्त सात प्रकृतियों के उपशम होने पर औपशमिक सम्यक्त्व प्रगट होता है । संपूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से औपशमिक चारित्र प्रगट होता है । विशेषार्थ - अनादि मिथ्यादृष्टि के जो प्रथमबार सम्यग्दर्शन होता है वह उपशम सम्यग्दर्शन ही होता है, यह मिथ्यात्वप्रकृति और चार अनन्तानुबंधी प्रकृतियों के उपशम से उत्पन्न होता है, जो सादि मिथ्यादृष्टि है अर्थात् जिसका सम्यक्त्व होकर छूट गया है उसको जो उपशम सम्यक्त्व होता है वह दो तरह से होता है, जिस जीवके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन तीनों की सत्ता मौजूद है वह जीव तो इन तीनों का तथा अनन्तानुबंधी कषायों का उपशम करके उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, और जिस जीव के सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति की उद्वेलना हो गई है उनके इन दो प्रकृतियों की सत्ता नहीं रहती अतः पांच प्रकृतियों के उपशम से ही उपराम सम्यक्त्व होता है इसप्रकार अनादि मिथ्यात्व दृष्टि के पांच का उपशम होकर उपशम सम्यक्त्व होता है और सादि मिथ्यादृष्टि के दो तरह से पांच या सात कर्म प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है । ये प्रथमोपशमः सम्यक्त्व के भेद हुए । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व अनन्तानुबंधी कषाय की विसंयोजना करके [ इन चार कषायों को अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषायरूप संक्रमण करके इनकी सत्ता समाप्त करने पर ] तथा दर्शन मोह की तीन प्रकृतियों का उपशम करने पर प्राप्त होता है [ एक आचार्य के मत से अनन्तानुबंधी के विसंयोजना के बिना केवल उपशम से द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्रगट होता है ] द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी उपशम श्रेणी चढ़ता है अतः यह ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है किन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्वी जीव उपशम श्रेणी नहीं चढ़ता है अतः चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है । इसप्रकार उपशम या औपशमिक सम्यक्त्व का कथन है । चारित्र मोह संबंधी इक्कीस कर्म प्रकृतियां अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, प्रत्याख्यानावरण चार कषाय, संज्वलन चार कषाय, तथा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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