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________________ Poonam-Rasoorwesom-0 स्वतन्त्रवानामृतम -wesom-wesome जो वासनाओं से मुक्त है, उस परमात्मा को नमस्कार हो । 1:- स्वतन्त्र आत्मा जो कि कारण और कार्य तथा मुर्तरूप और जीवन के साधनों से बन्धनमुक्त है, जो अपने ज्ञानप्रकाश से। चेतन और अचेतन को प्रकाशित करते हैं, उनका हम आदर करते हैं। PORA 2:- आत्मा से बन्धन को प्राप्त हुए कर्मों का जब पूर्णरूप। से नाश हो जाता है, तब यह जीव सही अर्थों में स्वतन्त्र हो जाता है । यह अवस्था सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के १ एकरूप होने पर ही प्राप्त होती है । 3 :- यहाँ मिथ्यावादी आक्षेप करता है कि वस्तु का निर्देश करने पर ही उसके गुणों का विचार किया जाता है । जब आत्मा का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं है, तब उसके स्वतन्त्रता की चर्चा करना । कहाँतक उचित है ? 4:- (आत्मवादी कहते हैं) आत्मा चेतन है, ज्ञानी है, पृथ्वी । आदि भूतों से भिन्न है, (उसे शरीर से भिन्न माना जाना चाहिये) पिशाचदर्शन(जिसे पूर्ण शरीर नहीं होता) में कहे हुए आत्मा के समान है है नहीं है और आत्मा शाश्वत तथा सर्वकाल पवित्र रहने वाला है ।। 5:- शरीर के साथ रहने वाले सुख, लैंगीक इच्छा और क्रोध है। इनके कारण से आत्मा दोर्षों से मुक्त नहीं रह सकता है । आत्मा का कर्ता और भोक्ता ईश्वर हो ही नहीं सकता । 6:- ईश्वर की अनुपस्थिति में (प्रतिनिधि और आनन्द लेने । वाला) आत्मा की स्थिति निर्विवादरूप से सिद्ध नहीं हो सकती है । ऐसा योगमतावलम्बी कहता है । - यहाँ बौद्धवादी कहता है कि यदि आत्मा विद्यमान हो तो । वह क्षणिक है । जैन उन्हें उत्तर देते हैं कि ऐसा मानने पर उसे फलप्राप्ति कैसे हो सकती है ? आपका आकलन मलत है क्योंकि इससे प्रत्यभिज्ञान का अभाव हो जायेगा । 8- मीमांसा कहती है कि कर्म करने के लिए पशुयज्ञ की । आवश्यकता है ऐसा धर्मयब्ध का नियम है । जैन उन्हें उत्तर देते हैं कि आपका कयन निष्पल है और यज्ञ हिंसा मोक्षप्राप्ति का सा
SR No.090486
Book TitleSwatantravachanamrutam
Original Sutra AuthorKanaksen Acharya
AuthorSuvidhisagar Maharaj
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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