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________________ स्वतन्त्रतामृत विशेषार्थ : जैमिनीय ( पूर्व मीमांसक) मतानुगामी मानता है कि वेदादि शास्त्रों में कही हुई हिंसा अधर्म नहीं है। उनका मानना है कि हिंसाजीची व्याध आदि की हिंसा अथवा लोभ या व्यसन से की हुई हिंसा पापबन्ध का कारण है, क्योंकि इसप्रकार की हिंसा प्रमादादि दोषों के कारण होती है । वेदादि शास्त्रों में प्रतिपादित की गई हिंसा धर्म का ही कारण है, क्योंकि उससे देव, अतिथि अथवा पितरों को आनन्द पहुँचता है । आचार्यदेव कहते हैं कि उनका कथन किसीप्रकार भी उचित नहीं है । यह कथन मेरी माता वन्ध्या है ऐसे कहने के समान ही स्व- वचनबाधित है । हिंसा करने वाले को धर्म नहीं हो सकता । यदि हिंसा करने से पुण्य का लाभ होता हो तो अहिंसा, दान आदि सद्कार्य से क्या पापबन्ध होगा ? सांख्य लोगों ने भी कहा भी है कि - ११२ यूपं छित्त्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्गे, नरके केन गम्यते ॥ अर्थात् :- यदि यज्ञ में पशुओं को काटकर, पशुओं का वध करकर, रक्त से पृथ्वी का सिंचन करके स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती हो तो फिर नरक जाने के लिए कौनसा मार्ग बचेगा ? अर्थात् कोई भी नहीं । जैनदर्शन को किसी दर्शन से व्देष नहीं है । अन्य दर्शनकारों ने धर्म के नाम पर जिस अधर्म का प्रचार किया है, उसका खण्डन करके भव्य जीवों को सम्यक् मार्गदर्शन करना ही जैनागम का मुख्य हेतु है । मनुस्मृति के तीसरे और पाँचवें अध्याय में, त्रिपुरार्णव तन्त्र में और याज्ञवल्क स्मृति के आचाराध्याय आदि ग्रन्थों में देव, यज्ञ, अतिथि या पितरों के नाम पर हिंसा का प्रकटरूप से समर्थन किया गया है I अतः श्रुति और स्मृतियों में हिंसा करने को उचित माना गया है, ऐसा विचार करके हिंसा नहीं करनी चाहिये ।
SR No.090486
Book TitleSwatantravachanamrutam
Original Sutra AuthorKanaksen Acharya
AuthorSuvidhisagar Maharaj
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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