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________________ -.----. .. हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-निज-आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन-सम्याज्ञान और सम्पक्चारित्र कारणभूत हैं; उनमें सात प्रकार के तस्वों में जीव का, वस्तुस्वरूप जिस प्रकार से स्थित है, उसी प्रकार से श्रद्धानरूप स्थिर सुस्थितिपना/भली भाँति रहना सम्यक्त्व माना गया है। भेद करने का नाम व्यवहार है, वही निश्चय का कारण होने से इसलिए उभय (निश्चय-व्यवहार दोनों) प्रकार के सम्यक्त्व का स्वरूप इसमें प्रतिपादित किया/बताया गया है-यह भावार्थ है। विशेषार्थ-तत्त्वार्थसूत्रकर्ता आचार्य उमास्वामी ने 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्राणि मोक्षमार्ग: कहकर सम्यादर्शन आदि की एकता को मोक्षमार्ग बताया था, तो यहाँ पर इन तीनों की एकता को निजात्मतत्त्व की प्राप्ति का उपाय' बताया है । यद्यपि वस्तुगतरूप में इन दोनों कथनों में कोई भेद नहीं है, क्योंकि "कर्मबन्धन से मुक्ति' का ही दूसरा नाम निजशुद्धात्मतत्त्व की अविचल प्राप्ति' है। कर्मबन्धन का अभाव मोक्ष के बारे में नास्तिपरक कथन है,तो स्वात्मलब्धि उसी का अस्तिपरक निरूपण है। किन्तु इस शैली में कथन करके ग्रंथकार ने अपनी उत्कृष्ट आध्यात्मिक मानसिकता का परिचय दिया है। वस्तुत: अन्य किसी को हटाने के लिए पुरूषार्थ उतनी उग्रता से प्रवर्तित नहीं होता है, जितना कि अपने को कुछ प्राप्ति होने की आशा में जाग्रत होता है। अत: पुरुषार्थ जगाने की दृष्टि से यह कथनशैली अधिक व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक भी है। 'तत्त्वे यह पद भी अत्यन्त गम्भीर है। 'आत्मा' या 'जीव' का प्रयोग संभवतः इतना सटीक नहीं रहता। जीवद्रव्य' या 'आत्मा' का पहिले विवेचन मुण-पर्यायात्मक एवं सामान्य-विशेषात्मक वस्तुविशेष के रूप में किया गया है; किन्तु अध्यात्मग्रन्थों में. जीवतत्त्व' का स्वरूप त्रिकाली ध्रुव शुद्ध चैतन्यस्वभाव' के रूप में लिया जाता है, जिसमें गुणभेद एवं पर्यायभेद का विकल्प ग्राह्य नहीं होता है। यहाँ तत्त्वे' पद का प्रयोग करके अकलंकदेव ने इसी दृष्टि के विषयभूत जीवतत्व' का ग्रहण किया हैं। कन्नड़ टीकाकार ने यही अभिप्राय लिया है। 'याथात्म्य' पद का अर्थ भी यहाँ विचारणीय है। टीकाकार ने इसकी व्याख्या 'जिस तरह से वस्तु का स्वरूप अवस्थित है, वैसा' के रूप में की है। यह "ज्यों का त्यों सरधानो" का सूचक है, अर्थात् वस्तु के स्वरूप का श्रद्धान न तो शास्त्र, न उपदेश और न ही क्षयोपशमजन्य विकल्पजाल से होता है; वह तो वस्तु के अनुरूप ही होना चाहिए। तथा वस्तु का स्वरूप अनुभवगम्य तो है, किन्तु विकल्पगम्य एवं शब्दगोचर नहीं है - यह भी 'याथात्म्य' पद से संकेतित है।
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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