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________________ नवाच्य भी नहीं है, (और) वाचामगोचर: वचनों के द्वारा (सर्वथा) अगोचर (अवाच्य), अपि=भी, न-नहीं है। हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-कहे जाने योग्य है. कौन? वह आत्मा, किससे (कहे जाने योग्य है)? स्वरूपादि चतुष्टयों से। (तथा) कहे जाने योग्य नहीं है, किस कारण से? पररूपादि चतुष्टयों से; इस कारण से (आत्मा) वाच्य नहीं है। कैसे? एकान्तपक्ष से। और किस प्रकार से नहीं होता? उस विषय का अगोचर भी नहीं है, किसका? वचनों का। हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-वह आत्मा स्वद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से 'आत्मा' इत्यादि शब्दों के द्वारा वक्तव्य है (तथा) परद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से 'जीव' इत्यादि शब्दों के द्वारा निर्वचनीय है। इस कारण से सर्वथा वचनों के द्वारा इस प्रकार ऐसा वाच्य भी नहीं है और वचनों का अविषय भी नहीं है। स्वरूपादिचतुष्टय के द्वारा वक्तव्य है और परद्रव्यादिचतुष्टय की अपेक्षा से निर्वाच्य भी होता है। दृष्टान्तपूर्वक असाधारण जो निजधर्म, उस रूप से निरूपण में प्रतिपाद्य होने से वचन का विषय होता है- ऐसा अभिप्राय है। विशेषार्थ:-'आत्मा को सर्वथा वचन-अगोचर (वचनातीत) तत्त्व' माना जाये तो सम्पूर्ण आत्मस्वरूप प्रतिपादक शास्त्र एवं उपदेश व्यर्थ हो जायेंगे तथा वचनों द्वारा कहे जाने योग्य' मानने पर अनुभूति की उपयोगिता एवं विशेषता नहीं रहेगी। - ऐसा अभिप्राय प्रयोजनवश आत्मा को वक्तव्य एवं अवक्तव्यरूम कहने वाले व्यक्त करते हैं। किन्तु यहाँ जो आत्मा को वक्तव्य या अवक्तव्य कहा गया है, वह किसी प्रयोजन के वशीभूत होकर नहीं कहा गया है; अपितु वस्तुगतरूप में आत्मा वचनगोचर है या नहीं - यह बात कारण-सहित बतायी गयी है। ' स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव - इस स्वचतुष्टय की अपेक्षा आत्मा का कथन किया जा सकता है; सम्पूर्ण आगमनन्ध एवं ज्ञानी गुरूओं ने इन्हीं चार पक्षों से आत्मा के स्वरूप-विषयक विवेचन किया है। किन्तु यह वचनगोचरता भी बहुत वास्तविक नहीं है, क्योंकि शब्द पौद्गलिक (जड़रूप) हैं और आत्मा चेतनतत्त्व है; अत: जड़ शब्द चेतन आत्मा के बारे में स्वरूपत: कोई ज्ञान नहीं करा सकते हैं। हाँ वे उसके विषय में संकेत अवश्य कर सकते हैं - यही यहाँ आत्मा को 'शब्दगोचर' या वक्तव्य' कहने का अभिप्राय है। इसी प्रकार परद्रव्य-परक्षेत्र-परकाल और परभाव - इस पररूप चतुष्टय में आत्मा है ही नहीं और जब उसरूप आत्मा है ही नहीं, तो उसका कथन कैसे संभव है; अत: आत्मा को पररूपचतुष्टय से 'अवाच्य' कहा गया है। 25
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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