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________________ जैनाचार्यों ने उनके समक्ष यही प्रश्न रखा था कि यह वही देवदत्त है'' - इस प्रकार दर्शन और स्मरण पूर्वक होने वाले तुलनात्मक प्रत्यभिज्ञान कैसे सम्भव है? यदि दोनों में किसी तत्त्व का अन्वय नहीं हो, तो प्रत्यभिज्ञान की प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती है। किन्तु ऐसा तुलनात्मक ज्ञान सभी के अनुभवसिद्ध है, अतः यह निश्चित है कि पर्यायगत परिवर्तनों के उपरान्त भी द्रव्यस्वभावगत एकत्व अविच्छिन्न है। चेतना को जीव का लक्षण माना गया है। नयचक्र में कहा है कि "आत्मा लक्षण चेतना है; वह चेतना ज्ञानदर्शन लक्षण वाली है, वही जीव की उपलब्धि है। 7 निश्चयनय की दृष्टि से तो जिसके चेतना है, वही जीव है। संसारावस्था में भी कर्मोपाधिसापेक्ष ज्ञान-दर्शनरूप उपयोगवाले चैतन्यप्राणों से जो जीते हैं, वे जीव है।' अत: लक्षण या विशेषस्वरूप की अपेक्षा तो जीव चेतनरूप ही है। छहढालाकार कविवर पं० दौलतराम जी इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं ___ "चेतन को है उपयोगरूप, चिन्मूरत बिन मूरत अनूप।" अर्थात् चेतनतत्त्व जीव का स्वरूप ज्ञानदर्शनम्प 'उपयोग' है। वह इसी ज्ञानदर्शनात्मक चेतना से निर्मित 'मूर्ति' है, तथापि पौलिक मूर्तिकपना उसमें नहीं है-यह अनुपम वैशिष्ट्य जीव का है। द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गा. 1951 2. वही गा. 1921 3. "दर्शनस्मरणकारणक संकलनं प्रत्पभिज्ञान, तदेवेदं-तत्सदृश-तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि परीक्षामुखसूत्र; 3:5 तथा द्र. सिद्धभक्ति-संस्कृतटीका, पद्म 2। 4. 'असत्कार्यवाद' के रूप में। 5. स एवायं देवदत्त: ....* परीक्षामुखसूत्र 36 । सर्वार्थसिद्धि: 114। 7. द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 391 । 8. द्रव्यसंग्रह, गाथा 31 9. गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका 2:21 । 18
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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