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निर्णीत व प्रामाणिक सूचनाओं का भी उनमें अभाव था। अत: इतनी अधिक मात्रा में कार्य अवशिष्ट होने से मैंने उस सदोष व अपूर्ण मूलपाठ को द उसके तदनुसारी अनुवाददाले प्रकाशनों को 'अप्रकाशितवत्' माना एवं इसे प्रकाशनार्थ
चुना।
चूँकि मूलग्रन्थ के पाठ शुद्ध व मूलरूप में ही गृहीत हों - यह प्रथम लक्ष्य था, अत: टीकाओं का अन्वेषण किया, क्योंकि 'टीकाओं में ग्रन्यों के शुद्ध मूलपाठ प्रामाणिकरूप से सुरक्षित मिलते हैं - यह पाठ-सम्पादन का मूल मन्त्र है। प्रथमत: पण्डित महासेनकृत कन्नड़ टीका मिली, फिर केशववर्य्यकृत संस्कृत टीका भी मिली। गहराई में जाने पर देश भर के अनेकों ग्रन्थ-भण्डारों में इसकी अनेकों प्रतियों की सूचना मिली, जिनकी प्राप्ति के लिए पर्याप्त यात्रा एवं पत्र-व्यवहार आदि का समय एवं श्रमसाध्य कार्य करना पड़ा। अन्तत: जो रूप बन पड़ा, वह आप सब सुधी पाठकों के हाथों में प्रस्तुत है।
इस ग्रन्थ के कार्य-निमित्त अनेकों विद्वानों एवं सज्जनों का परामर्श, सहयोग एवं मार्गदर्शन सहकारी रहा है; उन सभी का मैं हृदय से आभारी हूँ। विशेषत: दि० जैनमठ, मूडबिद्री के भट्टारक चारुकीर्ति जी, जिन्होंने उदारभाव से ताड़पत्रीय प्रतियौं उपलब्ध करायी; पं० देवकुमार जी शास्त्री, मूडबिद्री (दक्षिण कर्नाटक), जिन्होंने इसकी प्रतिलिपियों व पाठ-सम्पादन में विशेष सहयोग दिया एवं श्री अनन्तभाई अमूलकजी शेठ, बम्बई; जिन्होंने इस कार्य में निरन्तर प्रेरणा व संबल प्रदान किया,-इनका मैं सादर उल्लेख करना चाहता हूँ। मेरे अनेकों मित्रों, परिजनों व धर्मानुरागी सज्जनों ने भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में प्रभूत प्रेरणा मुझे इस कार्य में निरत रहते-हेतु प्रदान की; मैं उन सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ। ___ मेरे उपकारी मार्गदर्शक स्व० डॉ० रामचन्द्र द्विवेदी; पूर्वकुलपति डॉ० मण्डन मिन जी एवं वर्तमान कुलपति डॉ वाचस्पति उपाध्याय जी का भी ऐसे गुरुतर कार्य के लिए अमूल्य मार्गदर्शन एवं उदार सहयोग सदैव रहा है, उनका मैं सविनय स्मरण करता हूँ। डॉ० राजाराम जी, आरा (बिहार) ने भी प्रतिलिपियाँ उपलब्ध कराने में नि:स्वार्थ श्रम एवं कृपा की; यद्यपि उनका सान्निध्य प्राप्त होता ही रहा है, तथापि यहाँ विशेषत: स्मरण कर रहा हूँ। मैं चरमत: उस अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी विभूति का स्मरण करना चाहता हूँ, जिन्होंने मुझे अन्य प्रवृत्तियों से हटाकर मात्र शास्त्र-कार्य में निरत किया एवं अपनी ज्ञानसाधना से
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