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________________ से बचाने के लिए 'ज्ञानमूर्ति' विशेषण का प्रयोग ग्रंथकर्ता ने किया है। समयसार के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने आत्मा को 'ज्ञानघन' अर्थात् 'ज्ञान का घनपिण्ड' ऐसी उपमा अनेकत्र दी है। कहीं-कहीं उन्होंने आत्मा को 'ज्ञानसिंधु', ' 'ज्ञानज्योति',' एवं 'ज्ञानपुञ्ज', " भी कहा है। मंगलाचरण में उन्होंने उसे 'अनेकान्तमयीमूर्ति' भी कहा है | 22 'समाधिशतक' में आत्मा को 'ज्ञानविग्रह' कहकर उसे ज्ञान के ही आकारवाला अथवा ज्ञानशरीरी आचार्य पूज्यपाद ने बताया है। 'विग्रह' शब्द का अर्थ उन्होंने ही 'सर्वार्थसिद्धि' टीका में "विग्रहो शरीर" किया है। अतः आत्मा 'ज्ञानशरीरी' या 'ज्ञानाकार' है - यह तथ्य जैनाचार्यों द्वारा अनेकत्र पुष्ट हुआ है। यहाँ आत्मा को 'ज्ञानमूर्ति' कहकर उसे 'शुद्ध जीवास्तिकाय' के रूप में प्रतिपादित किया है । यहाँ प्रयुक्त 'परमात्मा' शब्द निजशुद्धात्मा का वाचक हैं | आचार्य योगिन्द्र देव ने भी 'परमात्मप्रकाश' में लिखा है कि "जो परमात्मा है, वही मैं हूँ जो तीन लोकों में ध्यान करने योग्य 'जिन' है, वह वस्तुतः आत्मा ही है | 13 मोक्खपाहुड, 4. समाधितन्त्र, 4 परमात्मप्रकाश, 1/111 द्रव्पस्वभावप्रकाशकनयचक गाथा 1901 1. 2. 3. तत्त्वार्थसूत्र 5/33 । 4. समयसार, गाथा 38 पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति टीका; गाथा 27 | द्र. 'समयसार - आत्मख्याति टीका' का परिशिष्ट । 5. 6. 7. 8. 9. समयसार कलश, 321 10. वही, कलश, 46, 99 11. वही, कलश, 193 | 12. वही, कलश, 21 13. योगसार, पद्य 22.37 1 प्रवचनसार, गाथा 1 / 271 समयसार कलश 6, 13, 15, 48 एवं 123 तथा गाथा 73 की आत्मख्याति टीका में । 8
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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