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श्रीमद् भट्टाकलङ्कदेव - विरचिता स्वरूप- सम्बोधन - पञ्चविंशतिः
कन्नड टीकाकार का मंगलाचरण
श्रियः पति केवलबोध - लोचनम्, प्रणम्य पद्मप्रभ-बोधकारणम् । करोमि कर्णाटगिरा - प्रकाशनम्, स्वरूप- सम्बोधन - पञ्चविंशतिः । ।
खण्डान्वय- श्रियः पति= मोक्षलक्ष्मी के जो स्वामी हैं, केवलबोधलोचनम्=जो केवलज्ञानरूप चक्षु के धारी हैं, (तथा) बोधकारणम् = भव्यजीवों के लिए आत्मबोध या तत्त्वबोध में प्रधान निमित्तकारणरूप पद्मप्रभ = श्री पद्मप्रभ नामक पाँचवें तीर्थकर परमात्मा को प्रणम्य = नमस्कार करके, स्वरूपसम्बोधन पञ्चविंशति=स्वरूपसम्बोधन पञ्चविंशति नामक (प्रस्तुत ग्रन्थ का ), कर्णाटगिराप्रकाशनम् = कन्नड़ भाषा में प्रकाशन ( टीकाकार्य ) करोमि करता हूँ ।
विशेषार्थ - श्रियः पतिः - अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यइस अनन्तचतुष्टयरूपी अक्षय-अविनाशिनी सम्पत्ति की प्राप्ति अरिहन्त अवस्था में हो जाती है। जगत् की सम्पत्तिरूपी जो लक्ष्मी कही जाती है, वह क्षणिक है तथा उसके कारण जीवों के परिणामों में प्रायः विकार ही देखा जाता है, इसीलिए अमृताशीति' में उस लक्ष्मी की अनेकविध निन्दा की गयी है। किन्तु अनन्तचतुष्टयरूपी लक्ष्मी वीतरागता सर्वज्ञता के साथ अनन्तसुख - बल की धारक है और सबसे बड़ी बात है कि यह कभी साथ नहीं छोड़ती और न ही कोई विकार उत्पन्न करती है। अतः ऐसी लक्ष्मी का अधिपति होना त्रिलोकपूज्यत्व का कारण है |
केवलबोधलोचनम् - यहाँ केवल' शब्द में श्लेष संभावित है: केवल' शब्द को 'बोध' से पृथक् लेने पर मात्र ज्ञानदृष्टिवाले परमात्मा हैं'
यह अर्थ निकलता
है। तथा संयुक्त करने पर 'केवलज्ञान' रूपी दिव्य चक्षुवाले परमात्मा हैं - ऐसा अर्थ होगा। किन्तु 'केवल' पद में कोई विभक्ति प्रत्यय का प्रयोग नहीं हुआ है, अतः इसे संयुक्तरूप में 'केवलबोधलोचन' (केवलज्ञानरूपी चक्षुवाले) ग्रहण करना ही उपयुक्त है। केवलज्ञान का स्वरूप लोकालोक के समस्त द्रव्यों एवं उनकी
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