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व्याप्त करने वाले प्रभु' कहा है
“येनाशेष-कुतर्क-विभ्रमतमो निर्मूलमुन्मीलितम्, स्फारागाध-कुनीति-सार्थ-सरितो नि:शेषत शोषिताः । स्याद्वादाप्रतिम-प्रभूतकिरणै: व्याप्तं जगत् सर्वत:,
स श्रीमानकलंकभानुरसमो जीयाग्जिनेन्द्रः प्रभुः ।।" आचार्य वादिराज ने इन्हें 'जगत् द्रव्य को चुरानेवाले शाक्य (बौद्ध) दस्युओं को दण्डित करनेवाले' एवं 'तर्कभूमि के वल्लभदेव' कहकर इनकी स्तुति की है
"तर्कभू-वल्लभो देव: स जयत्यकलंकधीः ।
जगद्व्यमुषो येन दण्डिता: शाक्यदस्यवः ।।" एक अन्य शिलालेख में उन्हें 'महर्धिक' (महान् ऋद्धिधारी) कहा गया है
"जीयात् समन्तभद्रस्य देवागमनसंज्ञिनः ।
स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलंको महर्धिक: 11" निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आचार्य भट्ट अकलंकदेव बालब्रह्मचारी, निम्रन्थ तपस्वी, महान् तार्किक, प्रकाण्ड दार्शनिक, शास्त्रार्थ-विजेता, श्रेष्ठ कवि, अद्वितीय वाग्मी एवं वाचंयमी थे। विद्ववर्य डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इन्हें 'जैनन्याय का पिता' स्वीकार किया है। ___ कालनिर्णय:- चूंकि आचार्य अकलंकदेव पर दशाब्दियों से विद्वानों ने प्रभूत कार्य किया है तथा उनके कालनिर्णय के बारे में अन्त:साक्ष्यों एवं बहि:साक्ष्यों के आधार पर जो निष्कर्ष निकाले हैं, उन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है। प्रथम मान्यता के अनुसार आचार्य भट्ट अकलंकदेव का समय सन् 620-680 ई० माना गया है, जबकि दूसरी अवधारणा के अनुसार इनका समय सन् 720-780 ई० निश्चित होता है। इस तरह दोनों मान्यताओं में लगभग एक सौ वर्षों का अन्तर है। दोनों के पक्ष को सामने रखकर ही हम निर्णय कर सकते हैं कि इनका प्रामाणिक काल कौन-सा है।
चूंकि 'अकलंकचरित' नामक ग्रन्थ में अकलंकदेव के काल विषयक एक पद्य प्राप्त होता है
"विक्रमार्कशकाब्दीय-शतसप्त प्रमाजुषि ।
काले अकलंकयतिनो बौद्धीदो महानभूत् ।।" अर्थात् सात सौ विक्रमार्क शक वर्ष (संवत्) प्रमाण काल में अकलंकदेव का
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