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________________ बौद्ध गुरु को पराजित कर देगा; तभी रथयात्रा की अनुमति दी जा सकती है, अन्यथा नहीं।' अकलंक को जब यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ, तो वे राजा हिमशीतल की सभा में गये एव बौद्ध गुरु से शास्त्रार्थ किया। ऐतिहासिक उल्लेखों के अनुसार छह माह तक शास्त्रार्थ चलता रहा, तथा दोनों पक्ष अजेय बने रहे । बौद्धगुरु पर्दे की ओट में बैठकर शास्त्रार्थ करते थे। जैन देवी 'चक्रेश्वरी' के द्वारा बौद्ध गुरु के अजेय रहने का रहस्य ज्ञात होने पर अकलंक ने अगले दिन बौद्ध गुरु से पूर्वोक्त बातों को दुहराने के लिए कहा। किन्तु पर्दे के पीछे से बौद्ध गुरु की जगह घटावतीर्ण तारा देवी शास्त्रार्थ करती थी, अत: वह पूर्वोक्त बातों को दुहरा नहीं सकी। फलत: अकलंक ने पर्दा फाड़कर पादप्रहार से घट को तोड़कर शास्त्रार्थ में विजयश्री प्राप्त की, एवं भव्य जिनेंद्र रथयात्रा का आयोजन हुआ। इस घटना से अकलंक ने जिनधर्म की व्यापक प्रभावना के 'अकलंक युग का सूत्रपात किया। 'राजाबलिकथे' के अनुसार इस शास्त्रार्थ की अवधि सत्रह दिन थी, इसके फलस्वरूप बौद्धों को कलिंग देश छोड़कर सिलोन जाना पड़ा था। मल्लिषेण-प्रशस्ति के द्वितीय पद्य के अनुसार राष्ट्रकूटवंशी राजा साहसतुंग की सभा में अकलंक ने सम्पूर्ण बौद्ध-विद्वानों को परास्त कर भारत से बौद्धधर्म की पूर्ण विदाई की आधारभूमि निर्मित कर दी थी। उक्त कथानकों से यह सुस्पष्ट था कि भट्ट अकलंकदेव दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान् थे। इसी कारण आचार्य विद्यानन्दि ने अकलंक को 'सकल-तार्किकचक्रचूड़ामणि' कहा है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर पूर्वोक्त कथानकों के परीक्षण से यह ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूटवंशी राजा कृष्णराज प्रथम की उपाधि 'शुभतुंग' थी, शिलालेखों में उत्कीर्ण प्रशस्तियों से इस तथ्य को समर्थन प्राप्त है। इन्हीं शुभतुंग अर्थात् कृष्णराज प्रथम के मन्त्री पुरुषोत्तम के पुत्र के रूप में अकलंक का 'कथाकोष' में परिचय आया है। तथा ये शुभतुंग ‘दन्तदुर्ग' के चाचा थे और दन्तिदुर्ग का ही नाम 'साहसतुंग' था; जिसने काञ्ची, केरल, चोल, पाण्ड्य राजाओं तथा राजाहर्ष एवं व्रजट को पराजित करने वाली चालुक्यों (कर्णाटक) की सेना को पराजित किया था। भारत के प्राचीन राज्यवंश' नामक पुस्तक में राजा दन्तिदुर्ग की उपाधियों में 'साहसतुंग' उपाधि का स्पष्ट उल्लेख है। और इन्हीं साहसतुंग की सभा में अकलंक द्वारा समस्त बौद्ध विद्वानों का पराजित
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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