SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ..) की 'उत्थानिकर" में "उक्तञ्च षण्णवति-पाषंडि-विजयोपार्जितविशालकीर्तिभिर्महासेनपण्डितदेवै:" तथा नियमसार गाथा 162 की टीका के बाद उद्धृत पद्य क्र. 3 (ज्ञानाद् भिन्नो...) की उत्थानिका में "तथा चोक्तं श्री महासेनपण्डितदेवै:" लिखकर स्वरूप-सम्बोधन-पञ्चविंशतिः' के ग्रन्थकर्ता के रूप में महासेन पण्डितदेव का नाम स्वीकृत किया है। -यही एकमात्र प्रामाणिक आधार है महासेन पण्डितदेव को ग्रन्थकर्ता मानने का अन्यत्र जो टीका-प्रतियों की पुषिका के आधार पर डॉ० ए०एन० उपाध्ये प्रभृति विद्वानों ने महासेन पण्डितदेव की ग्रन्थकर्ता के रूप में परिकल्पना की है, वह संभवत: पुष्पिका के पाठ का सही अनुवाद न होने के कारण पनपी है। वह पुष्पिका एवं उसका मूलानुगामी अनुवाद ग्रन्थ के अन्त में दिया जा रहा है, अत: यहाँ उसकी पुनरुक्ति अपेक्षित नहीं है। रही बात पद्मप्रभमलधारिदेव के द्वारा किये गये उल्लेख-की, तो उसके कई कारण हो सकते हैं। चूंकि महासेनपण्डित्तदेव आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव से पूर्ववर्ती थे; और उनकी टीका भी नियमसार के टीकाकार के समक्ष उपस्थित रही होगी, अत: संभव है कि टीकाकार को ही मूलग्रंथकार समझ लिया गया हो। अथवा किसी प्रतिलिपिकार ने भ्रमवश महासेन पण्डितदेव को मूलग्रन्थकार के रूप में उल्लेख कर दिया हो, और वही प्रतिलिपि नियमसार के टीकाकार के समक्ष उपस्थित रही हो। यह भी संभव है कि टीकाकार महासेन की टीका इतनी जन-समादृत हुई हो कि 'स्वरूप-सम्बोधन-पञ्चविंशतिः' नामक यह रचना 'महासेन पण्डितदेववाली' इस रूप में प्रसिद्ध हो गयी हो। चाहे जो भी कारण रहा हो, किन्तु यह बात सुस्पष्ट है कि 'स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशतिः' महासेन पण्डितदेव की रचना नहीं है। वे इस ग्रन्थ के टीकाकार हैं - यह तथ्य इस संस्करण में प्रकाश्य टीकाओं से स्पष्ट है। फिर मूलग्रन्थकार के रूप में भट्ट अकलंकदेव की पुष्टि के लिए जो प्रमाण प्राप्त होते हैं, उनका अवलोकन भी अपेक्षित है (i) प्रथम कन्नड़ टीकाकार महासेन पण्डितदेव लिखते हैं "श्रीमदकलंक कर्त मोदलागे षट्तर्कषण्मुखरुं समन्तादध्यात्मसाहित्य-वेदिगळु मूलकर्तृगळु नामधेयर्मप्प..." अर्थात् श्रीमद् अकलंकदेव इस ग्रंघ के कर्ता हैं, वे षट्तों के लिए पएमुख-कार्तिकेय के समान हैं। वे सर्वत: अध्यात्म-साहित्य के बड़े ही प्रगल्भ
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy