SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना पुण्यभूमि भारत अपनी आध्यात्मिक ज्ञान सम्पदा एवं साधना के कारण सदा से 'विश्वगुरु' की पदवी से विभूषित रहा। पाश्चात्य देशों में भौतिक-अभ्युत्थान की दिशा में निरन्तर शोध साधना चली है; वहीं भारत में नैतिक एवं आध्यात्मिक अभ्युत्थान के लिए अनवरत साधना की गयी, अनेकों दृष्टियों से इस विषय में व्यापक चिंतन किया गया; निष्कर्षतः अनेकों आयाम विकसित हुए । अतः आत्मविद्या इस देश का गौरव रही है- यह सर्वमान्य तथ्य है। तथा जैन श्रमण आत्मविद्या के विशारद/ पारंगत विशेषज्ञ थे यह तथ्य वैदिक साहित्य में भी स्वीकार किया गया है "श्रमणाः वातरशना: आत्मविद्याविशारदाः अपने अनुभव एवं साधना की पूंजी के बल पर एकत्व - विभक्तस्वरूपी आत्मतत्त्व' की उद्भावना की घोषणा करने वाले जैन श्रमणों ने साहित्यर-सृजन भी अति विपुल परिमाण में किया था. जो काल एवं राजनैतिक साम्प्रदायिक विद्वेषों के भीषण प्रहारों से अधिकांशतः विनष्ट होने के बाद भी आज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है । इसी साहित्य - रत्नाकर की दैदीप्यमान मणि है 'स्वरूपसम्बोधन - पञ्चविंशतिः । - 71 ग्रन्थकर्त्ता :- प्रस्तुत ग्रन्थ के ग्रन्थकर्त्ता के बारे में किंचित् भ्रमात्मक स्थिति है । यद्यपि प्रकाशित कृतियों में सभी सम्पादकों ने इसके ग्रन्थकर्ता के रूप में भट्ट अकलंक देव का नाम स्वीकृत किया है, किन्तु सुनिर्णीतरूप में नहीं। क्योंकि इस ग्रन्थ के रचयिता के रूप में महासेन पंडितदेव का उल्लेख भी मिलता है। अतः इस विषय में प्रथमतः कर्ता का निर्धारण अपेक्षित है; कर्ता का परिचय तदुपरान्त देना उचित रहेगा। ग्रन्थकर्त्ता के रूप में महासेन पंडितदेव का सर्वप्रथम कथन' नियमसार' के टीकाकार आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव ने किया है। नियमस्तर टीका में उन्होंने 'स्वरूप-सम्बोधन- पञ्चविंशति' के दो पद्य (पद्य क्र. 12 एवं पद्य क्र. 3 ) उद्धृत किये हैं | नियमसार गाथा 159, की टीका के बाद उद्धृत पद्य क्र. 12 ( यथावद्वस्तु. 1. भागवत्, 11/2/201 2. "तं एयत्त वित्तं दाएज्जं अप्पणो सविहवेण..." - समयसार गाथा, 3
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy