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नहीं होगा, तो वह निश्चितरूप से अनिष्ट संयोगों को हटाने एवं इष्ट संयोगों को जुटाने के लिए बेचैन रहेगा। अत: समताभाव की प्राप्ति बिना बेचैनी (व्यग्रता) दूर नहीं हो सकती है। तथा समताभाव को ही स्वास्थ्य' भी कहा गया है-“साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च......"2 अत: दोनों अर्थों में शाब्दिक एवं शैलीगत अन्तर होते हुए दोनों का भाव एक ही है। ___ 'स्वसंवेद्यस्वरूप' पद भी विशिष्ट महत्त्व रखता है । आत्मा का स्वरूप वस्तुत: न तो शास्त्र पढ़कर जाना जा सकता है और न ही उपदेश सुनकर उसे समझा जा सकता है। यहाँ तक कि विकल्पात्मक चिन्तन प्रक्रिया से भी उसे पकड़ा नहीं जा सकता है। उसका तो मात्र स्वसंवेदन ज्ञान या स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा ही ग्रहण हो सकता है। आ० पतिवृषभ ने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की महिमा बताते हुए लिखा है कि "स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप ज्ञान की निर्बाधरूप से उपलब्धि होती है। 4 सम्पग्दृष्टि जीव का स्वसंवेदनप्रत्यक्ष सिद्धों के समान शुद्ध होता है। आचार्य जयसेन ने कहा है कि "स्वसंवेदनज्ञान से उत्पन्न सुखरूपी अमृतजल से भरे हुए परमयोगियों के जैसे शुद्धात्मा प्रत्यक्ष होता है, वैसा अन्य किसी के नहीं होता है।' ___ यह स्वसंवेदन आत्मा के उस साक्षात् अनुभव का नाम है, जिसमें योगी स्वयं ही शेयज्ञायकभाव को प्राप्त होता है। आचार्य जयसेन ने घोषणा की है कि "यह आत्मस्वरूप मेरे द्वारा चतुर्थ काल में केवलज्ञानियों की भाँति प्रत्यक्ष देखा गया है। वस्तुत: स्वसंवेदन के द्वारा निजतत्त्व की प्राप्ति किये बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है, और सम्यक्त्व के बिना निर्वाण की प्राप्ति संभव नहीं
1. छहढाला, 3/11 2. पद्मनंदि पंचविंशति:, 4:641 3. द्र० "स्वसंवेद्यं हि तद्रूपं स्वसंवित्त्वैव दृश्यताम् ।' -तत्त्वानुशासन, 167
कसायपाहुड, 1/1/31/44 | ___सम्यग्दृगात्मनः स्वसवेदनप्रत्यक्षं शुद्ध सिद्धास्पदोपमम्' – पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, 4891 6 पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा 127 ।
तत्त्वानुसासन, 1611 8. समयसार, तात्पर्मवृत्ति, गा० 110 | १. रयणसार, 901