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________________ किन्तु-परन्तु, तत्रापिः-उनमें (स्व-पर में) भी, इम व्यामोहम् यि मेरा है-ये पराया है) इस व्यामोह को, छिन्दि=नष्ट कर दो (तथा) अनाकुलः (सन्)-अनाकुल होकर, स्वसंवेद्यस्वरूपे अपने से ही अनुभव में अपने योग्य स्वरूप में, केवले परिपूर्ण (स्वरूप) में, तिष्ठ-स्थिर रहो। हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-(तुम) समझो, किसको?-अपने और पद के इस भेद को लेकिन, नाश करो, किसको? माह-ममता के भाव का किस प्रकार के?-समस्त प्राणियों को प्रत्यक्षरूप से कुछ करने के लिए स्व और पर वस्तुओं को जानने पर भी अविचल होकर खड़े रहो (स्थिर रहो), कहाँ पर? अपने से अपने को स्वयं ही साक्षात् प्रत्यक्षरूप से दिखाई देने वाले कारणसमयसारस्वरूप में। कैसा है वह स्वरूप? निरांवरण (शुद्ध) स्वरूप है, उसमें (स्थिर रहो)। हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-(अपने को) तुम और अन्य को जान लो, किन्तु फिर क्या? ऐसा कहने पर (बतलाते हैं) उन स्व-पर-वस्तुओं में उत्पन्न इस मोह-ममता के भाव को दोफाड़ (छिन्न-भिन्न) कर दो। और फिर परम स्वास्थ्य से सम्पन्न होकर अपने से जानने योग्य स्वरूप में (जो कि) पर की अपेक्षा से रहित है, ऐसे (स्वरूप) में अविचल-स्थिर हो जाओ। जब तक मोहभाव है, तब तक स्वरूप का ज्ञान और उसमें (स्वरूप में) अवस्थान (स्थिरता) नहीं बनता है, ऐसा भाव है। विशेषार्थ-जीव 'स्व' एवं 'पर' को जान तो ले, किन्तु उसमें अपने-पराये की राग-द्वेष परक भेदबुद्धि न करे। “अयं निजः परो वेति" का व्यामोह छोड़कर निज को निजरूप जाननेमात्र से 'पर' अपने आप छूट जायेगा। पर' का ग्रहण तो मात्र विकल्प/अज्ञान में है, जब विकल्प ही टूट जायेगा, तो फिर पर को छोड़ने की चिन्ता व प्रयत्न दोनों की ही आवश्यकता नहीं रहेगी। जब चिन्ता मिट जायेगी, तो आकुलता भी नष्ट होगी ही; क्योंकि चिन्ता ही तो आकुलता की जननी है। और तब आकुलतारहित होकर जीव अपने स्वसंवेद्यस्वरूप में स्थिर हो सकेगा। इसी कार्य को करने का मृदुल आदेशात्मक शब्द 'तिष्ठ. (रहो/ठहरो) का प्रयोग अकलंकदेव ने यहाँ किया है। ___ 'अनाकुल' शब्द का प्रयोग 'सुखस्वरूप' के अर्थ में हुआ है। कविवर दौलतराम जी ने भी 'सुख' का स्वरूप आकुलतारहित बतलाया है। कन्नड़ टीकाकार ने इसका अर्थ 'व्यग्रता (बेचैनी) से रहित' तथा संस्कृत टीकाकार ने 'परम स्वास्थ्य सम्पन्न' अर्थ लिया है। जब साधक व्यक्ति समताभाव से युक्त
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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