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________________ है। अत: पाठक क्या करे? यदि परिणामों में विचलितता आ जाये, तो वह साधक हीन भावना से ग्रस्त न हो; इस निमित्त यहाँ 'शक्तित:' पद का सुविचारित प्रयोग किया है। इसके द्वारा अकलंकदेव कहना चाहते हैं कि लोक में अन्य जीवों की स्थिति क्या रहती है? अथवा महापुरुषों के जीवन के घटनाक्रम क्या कैसे रहे हैं? यह सब सोचना-विचारना अथवा इनके आधार पर अपनी परिणति का निर्णय करना साधक जीव को उचित नहीं है। क्योंकि प्रत्येक जीव के परिणामों की स्थिति व उनके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव भिन्न-भिन्न होते हैं, अत: उनके आधार पर अपने परिणामों का निर्णय करना संभव नहीं है। अत: यदि कदाचित् परिणामों में विचलितता आ भी जाये, तो भी उसके कारण किसी भी तरह की हीनभावना या अन्यथा भाव लाये बिना अपने परिणामों एवं सामर्थ्य का विचार करके बुद्धिपूर्वक राग-द्वेषपरक चिन्तन से उपयोग को हटाकर निजशुद्धात्मतत्त्व की उत्कृष्ट भावना करनी चाहिए। यहाँ 'सम-द्वेष-विवर्जितम्' यह पद 'तत्त्वं' का विशेषण है। अत: आत्मतत्त्व राग-द्वेषादि विकारों भावों से रहित है। राग-द्वेष—ये औदयिक भाव हैं, अब -यवसान भाव हैं; जबकि ध्यान का विषयभूत आत्मतत्त्व परमपारिणामिकभावरूप है, उसमें राग-द्वेषादि भावों के विकल्प की भी गुंजाइश नहीं है। इसी परमपारिणामिक भावरूप आत्ममत्व की भावना/अनुभूति का फल 'वीतराग-स्वरूपनिर्विकल्पावस्था' है जो कि संस्कृत टीकाकार ने संकेतित किया है। 1. विशेष द्र० समयसार, गाधा 270 की 'आत्मख्याति' टीका। 2. द्र० नियमसार, गाघा 151 की टीका एवं तिलोयपण्णत्ति, 9:41; महापुराण, 21/18 | 3. द्र० नियमसार, गाथा 41 की 'तात्पर्यवृत्ति' टीका; वृहद्व्यसंग्रह, गाथा 57 की टीका। द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 198. एवं विशेषार्थ पृष्ठ 109 । 50
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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