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________________ अपना, कैसे? अपनी शक्ति के अनुसार (चिन्तन करना चाहिए), कहाँ? सुस्थिति में रहने पर (पा) दुःस्थिति में रहने पर, क्या करना चाहिए? खूब सोच-विचार करके, किसका? इन सबका, कैसे? जैसे ऊपर कहा जा चुका है, (वैसे ही चिन्तन करना चाहिए)। हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-इस प्रकार से सबका भली-भाँति विचार करके श्रद्धालु (व्यक्ति को) सुख/सदवस्था में और दुरवस्था में राग-द्वेष (आदि) से रहित आत्मा को अपनी शक्ति के अनुसार सर्वदा चिन्तन करना चाहिए. ऐसा हो जाना चाहिए। वीतरागस्वरूप निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त करो-ऐसा भावार्थ है। विशेषार्थ-इस पद्य में गगत 'इति' पद का बहुत व्यापक अर्थ है। पिछले पन्द्रह पद्यों में जो भी दार्शनिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मतत्त्व का एवं मोक्षमार्ग का वर्णन किया है, वह सम्पूर्ण इस 'इति' शब्द से यहाँ ग्रहण किया गया है। न केवल इस ग्रन्ध में, अपितु सम्पूर्ण जिनागम में जितना भी इस विषय को लेकर कधन किया गया है, वह समस्त. यहाँ इस पाब्द के द्वारा लिया जा सकता है। अन्यथा अकलंकदेव इति' के साथ 'इदं सर्वम्- इन दो पदों का प्रयोग नहीं करते। 'आलोच्य पद का प्रयोग यहाँ बहुत व्यापक अर्थ को लिए हुए है। ऊपर कहे गये सम्पूर्ण वर्णन की 'भलीभाँति समालोचना करके', उसे 'ज्यों का त्यों समझकर' -यह संक्षेपत: इस शब्द का अभिप्राय माना जा सकता है। यदि पूर्वाग्रह या पक्षपात से आध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन होगा, तो भी व्यक्ति उनके मर्म को ठीक ढंग से नहीं समझ पायेगा। तथा यदि निष्पक्ष होने के साथ-साथ पूर्ण जागरूक हुए बिना उनका अध्ययन होगा, तब भी आध्यात्मिक-ग्रन्थों को पढ़ने का सच्चा फल नहीं मिल सकेगा। वह सच्चा फल क्या है? इसका निर्देश भी आचार्यदेव ने इस पद्य में कर दिया है कि इस अध्यात्मतत्त्व को भली-भाँति समझकर जीव अनुकल या प्रतिकूल संयोगों में उनसे प्रभावित हुए बिना यथाशक्ति निजशुद्धात्मतत्त्व की भावना करता है। उसकी भावना में राग-द्वेष या पक्षपात की वृत्ति नहीं होती है। ___ शक्तित:' -- इस पद का प्रयोग सोच-विचारकर किया गया है। क्योंति संसारी जीवों के कदाचित् संयोग-वियोग में विचलित होने के प्रसंग बनते हैं; भरत का बाहुबलि पर चक्र चलाना एवं राम के द्वारा लक्ष्मण का शव लिए घूमना आदि ऐसे अनेकों प्रसंग महापुरुषों के जीवन में भी बने हैं। प्रथमानुयोग इसका साक्षी 49
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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