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________________ हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-मोक्ष के मुख्य कारण रत्नत्रय का, कर्मक्षय करने में उपयोगी जो देश-काल संहनन आदि (कारणभूत कहा गया है)-वह बहिरंग है, (तथा) अनशन आदि रूप यह बाह्य तप भी (बहिरंग कारण होता है) सहकारी कारण होता है। इस प्रकार दोनों प्रकार की मुख्य एवं सहकारी) सामग्री के बिना अनन्तसुखस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है-ऐसा भावार्थ है। विशेषार्थ:-विगत दो पद्यों में प्रतिपादित सम्यक्चारित्र के आध्यात्मिक स्वरूप को इस पद्य में अकलंकदेव ने मोक्ष का मूलहेतु/वास्तविक साधन माना है। उसे ही वास्तविक सम्यक्चारित्र स्पष्ट शब्दों में कहा है। साथ ही अन्तरंग में ज्ञायक तत्त्व की अविचल प्रतीति रहते हुए बाहर में जो कर्मक्षय करने के लिए उचित क्षेत्र (आर्यखण्ड आदि) एवं उचित काल (चतुर्थ काल आदि) की अनुकूलता शास्त्रों में प्रतिपादित की है, उसे तथा अनशन-अवमौदर्य आदि बाह्य तप को भी उस 'निश्चय मोक्षमार्ग' के सहयोगी होने से व्यवहार मोक्षमार्ग' बताकर निश्चय-व्यवहार का सन्तुलन स्थापित किया है। आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा में सभी अध्यात्मवेत्ताओं ने निश्चयदृष्टि से कितना ही सूक्ष्म वर्णन किया; किन्तु व्यवहारपक्ष की नितान्त उपेक्षा उन्होंने कभी भी, कहीं भी नहीं की है। क्योंकि जिस साधक के निश्चय मोक्षमार्ग होता है, उसके जीवन में मोक्षमार्ग का व्यवहार पक्ष भी होता ही है; अत: उसे यह समझाना आवश्यक नहीं था। किन्तु वे आचार्य जानते थे कि उनके ग्रन्थों के जो पाठक हैं, उनमें प्राय: सामान्य संसारी प्राणी होंगे; अत: वे कहीं निश्चयाभास को ग्रहण कर मोक्षमार्ग के बाद्यरूप का उपहास उड़ाते न घूमें - इस दृष्टि से भी उन्होंने निश्चय के साथ ही व्यवहार का कथन आवश्यक समझा। वास्तव में निश्चय और व्यवहार की दृष्टि को भली-भांति समझे बिना जिनप्रवचन के रहस्य को कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। महान् अध्यात्मवेत्ता आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि "व्यवहार और निश्चय के जो वास्तविक रूप में जाकर जो जीव मध्यस्थ (निश्चय या व्यवहार, किसी का भी पक्षपाती हुए बिना) हो जाता है, वही देशना (दिव्यध्वनि) के सम्पूर्ण एवं अविचल फल को प्राप्त करता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी लिखा है कि “व्यवहार नय के बिना 'तीर्थ' का नाश हो जायेगा तथा निश्चय नय के बिना तत्त्व नष्ट हो जायेगा। अत: हे भव्य जीवो ! यदि तुम जिनमत में प्रवर्तना चाहते हो. तो दोनों नयों को मत छोड़ो। 2
SR No.090485
Book TitleSwaroopsambhodhan Panchvinshati
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorSudip Jain
PublisherSudip Jain
Publication Year1995
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Metaphysics
File Size3 MB
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