SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयोऽधिकारः सज्जनों में गारों ओर से चिो हुए सेट व भात तुझ जगोपद पर अत्यधिक रूप से परम आनन्द से भर गए ।। १५ ।। भुवनोत्तम जिनेन्द्र भवन में गीत,वादित्र और माङ्गलिक सामग्री से बहुत बड़ी पूजा और स्नान कराकर उस बुद्धिमान ने प्रसन्न होकर मधुर वाक्यों के साथ सार स्वर्णादि को याचकों को उनकी इच्छा से भी अधिक दान में दिया ।। २६-९७ ।। कुलाङ्गनाओं ने सम्मानपूर्वक मनोहर महागीत गाकर संसार के लोगों के मन को प्रिय लगने वाला सुन्दर महोत्सव किया। वहीं उस समय घर-घर में बाजे, ध्वजा और तोरणों से महोत्सव किया गया । सच ही है, अच्छे पुत्र की प्राप्ति होने पर सज्जन क्या नहीं करते हैं ? ।।९८-९९ ।। सज्जन समस्त बाधव और भुत्यादिक भी उस हर्ष, वस्त्र और ताम्बल के सद्दान मान से सम्मानित हुए ॥ १०० ।। इस प्रकार सेठ ने प्रमोद से नित्य दानादि से कुछ रम्य दिन बिताए । पुनः शोभा से युक्त जिनालय में सज्जनों को आनन्द देने वाले स्नान और पूजा को कर परम आदर से भावी मुक्ति के स्वामी उस पुत्र का। चूंकि सब लोगों को उसका दर्शन अच्छा लगा था, अतः स्पष्ट रूप से सुदर्शन यह नाम रखा ।। १०१-१०२-१०३ ।। कुल, गोत्र, शुभनाम, लक्ष्मी, कीति, यश और सुख्ख, पूर्वजन्म के पुण्य से प्राणियों को पृथ्वी तल पर क्या नहीं होता है ? ॥१०४ ।। भतः भव्य जीव जिन कथित पुण्य, सर्व जगह सुख देने वाले दान, पूजा, अत, शील को नित्य आदरपूर्वक करें ।। १०५ ।। पुण्य से दूरतर वस्तुओं का भी समागम होता है । पुण्य के बिना वही वस्तु हथेली से चली जाती है । अतः हे निर्मल बुद्धि बालो! प्रमोद से मोक्ष सुख के बीज जिनेन्द्र कथित पुण्य को करो ।। १०६ ॥
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy