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________________ द्वितीयोऽधिकारः कहा भी है आप्त की समीपता न होने पर भी मूर्ति पुण्य के लिए होती है। क्या गरुड़ की मुद्रा विष के सामर्थ्य को नष्ट नहीं करती है ? || ४१ ।। बुद्धिमान व्यक्तियों को जिस प्रकार जिन की देव पूजा करना चाहिये उसी प्रकार जिनोपदिष्ट ज्ञान, गुरु के चरणकमल तथा पवित्र सिद्धचक्रादि की पूजा करना चाहिए ।। ४२ ।। पूज्य, पूजा के क्रम से ही भव्य पूज्यतम होता है। अतः सुखार्थी भव्यों के द्वारा पूज्य की पूजा का उल्लंघन नहीं किया जाता है ।। ४३ ।। जिस प्रकार पर्वतों में मेरु, समुद्रों में क्षीरसागर का महत्त्व होता है, उसी प्रकार मियों का परोपकार करने में अत्यधिक महत्त्व होता है ।। ४४ ॥ शल्य रहित लोगों को सद्धर्म की वृद्धि के लिए प्रीतिपूर्वक दान मानादि से सदा सामियों के प्रति वात्सल्य रखना चाहिए ॥ ४५ ॥ तथा जैनधर्मानुयायी सुश्रावकों को नित्य रूप से गुरुओं की सारस्वरूप सेवा कर शास्त्र श्रवण करना चाहिए ॥ ४६ ।। इस प्रकार श्रीमज्जिनेन्द्र द्वारा कथित सप्तक्षेत्रों का बुद्धिरूपी धन वाले व्यक्तियों को निस्य अत्यधिक रूप से तर्पण करना चाहिए, क्योंकि ये सुख की खान हैं ।। ४७ ॥ अन्त में तत्त्व को जानने वाले लोगों में श्रेष्ठ भव्य श्रावकों के द्वारा मोह और आसक्ति का त्याग कर संन्यास धारण किया जाता है ॥४८॥ भक्त लोगों को परमेष्ठियों की अनन्य शरण होकर, चित्त में अनुत्तर रत्नत्रय की शरण लेकर परमार्थ रूप से शुद्ध चैतन्य स्वभाव वाला मैं कौन है, इत्यादि तत्त्व संकल्पों के साथ संन्यास की उत्तम विधि करना चाहिए ॥ ४९-५० ।। उसी प्रकार हे बुद्धिमान् राजा श्रेणिक ! मेरे वचन सुनो। जिनोक्त सप्ततत्वों का लक्षण मैं तुमसे कहता हूँ ।। ५१ ।। सात तत्त्वों में जीव तत्त्व पूर्व है, जो कि सदा अनादिनिधन है। वह जोव भी निश्चित रूप से जिनों ने चेतना लक्षण वाला कहा है ॥ ५२ ॥ विद्वानों ने उसे दो उपयोगों से युक्त, स्वदेहपरिमाण वाला, कर्ता, भोक्ता और अमूर्त कहा है ॥ १३ ॥
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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