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प्रथमोऽधिकारः हे तीनों लोकों के पूज्य, संसार के हिलैषी महावीर, तुम्हारी जय हो । इस प्रकार जयघोषों से पुनः-पुनः नमस्कार कर ॥ ११८।।
विशिष्ट जल, गन्ध, अक्षतादि अष्ट महाद्रव्यों से महान् प्रीति से जिन चरण कमलस्य को पूजा कर ।। ११९ ।।
भक्तिपूर्वक भली-भाँति स्तुति की। भथ्यों की ऐसी ही मति होती है जो कि उनके द्वारा सुपूज्यों को सुखकारी उत्तम पूजा की जाती है ॥१२०॥
हे तीनों लोकों के नाथ तुम्हारी जय हो, हे तीनों लोकों के गुरु तुम्हारी जय हो। परम आनन्द के देने में दक्ष क्षमानिधि तुम्हारो जय हो ।। १२१ ॥
हे वीतराग तुम्हें नमस्कार हो, हे सन्मति तुम्हें सदा नमस्कार हो । हे महावीर, वीरनाथ, जगत्प्रभु तुम्हें नमस्कार हो ।। १२२ ।।
हे गुणों के सागर, वर्द्धमान, जिनेशान्, विश्वभाषक महति आदि महावीर तुम्हें नमस्कार हो ।। १२३ ॥
रत्नत्रय रूप कमल लक्ष्मी के विकास के लिए सूर्य ! घातिकर्मों का विनाश करने वाले स्याद्वादवादी तुम्हें नमस्कार हो ।। १२४ ।।
तीनों लोकों के भव्यों को तारने वाले, मोक्षदायी ! तुम्हें नमस्कार हो। काम, क्रोध रूपी अग्नि को बुझाने वाले धर्मनाथ ! तुम्हें नमस्कार हो ।। १२५ ।। ____ स्वर्ग, मोक्ष के विस्तीर्ण सुख के कल्पवृक्ष स्वरूप ! तुम्हें नमस्कार हो। संसार रूपी समुद्र के सेतुस्वरूप हे सिद्ध ! बुद्ध ! तुम्हें नमस्कार हो ॥ १२६ ॥
हे स्वामिन् ! आपके विशुद्ध, पाररहित अनन्त गुण हैं। हे देव ! मुझ जैसा अल्पबुद्धि कौन तुम्हारा स्तवन करने में समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं ।। १२७ ॥
तथापि शोभा से युक्त सारस्वरूप आपके चरण कमलद्वय में मेरी भुक्ति और मुक्ति को प्रदान करने वाली, सुखदायिनी भक्ति हो । १२८ ।। ___ इस प्रकार श्री जिनाधीश, केवलज्ञानसूर्य आप्त की नमस्कारों के समुह से स्तुति करके नमस्कार कर वह बुद्धिमान् मनुष्यों के कोठे में बैठ गया । १२९ ।।
सम्यक् ज्ञानमय शरीर वाले गाँतमादि गणाधीशों को नमस्कार कर वह चैतन्य मूर्ति प्रेम और आनन्द से भर गया ।। १३० ।।