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विद्यानन्द विरचितं
सुदर्शन-चरितम् प्रथमोऽधिकारः
लोकालोक के प्रकाशक वृषभदेव को प्रणाम कर जितशत्रु से उत्पन्न शत्रुओं को जीतने वाले लोगों पर भी विजय प्राप्त करने वाले अजित को ( प्रणाम कर ) ॥ १ ॥
और भव का नादा करने वाले सम्भव (नाथ) को प्रणाम कर में सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सात तत्वों के उपदेशक अभिनन्दन की स्तुति करता हूँ || २ |
सुमति को देने वाले, चिदानन्द और गुणों के सागर सुमति (नाथ) की वन्दना करता हूँ और कमल के समान लाल वर्ण वाले प्रातिहार्यादि से भूषित पद्मप्रभ की वन्दना करता हूँ ॥ ३ ॥
सदा आनन्द स्वरूप, धर्म में समर्थ, संसार के गुरु, धर्मरूपी भूषण से संयुक्त सप्तम जिन सुपा की मैं स्तुति करता हूँ ॥ ४ ॥
महासेन से उत्पन्न, चन्द्र चिह्न वाले श्रेष्ठ जिन चन्द्रप्रभ की और श्वेतवर्ण पुष्पदन्त की मैं सदा स्तुति करता हूँ ॥ ५ ॥
जन्म, जरा, मरण रूप तीनों व्याधियों के विनाशक, पञ्च परिवर्तनाय संसार रूपी दावाग्नि का शमन करने के लिए एकमात्र घने मेघस्वरूप, शीतल (नाथ) की वन्दना करता हूँ ।। ६ ।।
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कल्याण के निधि, सदा पवित्र पावन श्रेयांस (नाथ) को वन्दना करता हूँ । वसुपुज्य से उत्पन्न जगत्पूज्य वासुपूज्य की मैं वन्दना करता 1119 ||
देवेन्द्र के द्वारा जिनके चरणकमलों की वन्दना की गई है ऐसे निष्कलङ्क पूज्यपाद विमल (नाथ) की बन्दना प्रारब्ध को सिद्धि के लिए करता हूँ अथवा प्रारब्ध की सिद्धि के लिए अकलंक और पूज्यपाद को स्तुति करता हूँ अथवा प्रारब्ध की सिद्धि के लिए पुज्यचरण अकलंक की वन्दना करता हूँ अथवा प्रारब्ध की सिद्धि के लिए निष्कलंक पूज्यपाद की वन्दना करता हूँ ॥ ८ ॥
संसार रूपी समुद्र से तारने वाले अनन्त (नाथ) जिन की वन्दना करता हूँ । भानुराज से उत्पन्न धर्मस्वरूप धर्म (नाथ) जिनको भी में वन्दना करता हूँ ॥ ९ ॥