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द्वादशोऽधिकार
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प्रकृतियों का नाश कर शीघ्र ही सिद्ध, बुद्ध, निराबाध, निष्क्रिय, कर्म रहित मोक्ष प्राप्त कर लिया || ५-१६ ॥
यद्यपि उन्होंने काय के आकार का किंचित् त्याग नहीं किया था, फिर भी अकायक हैं। तीनों लोकों के शिखर पर आरूढ़ तनुवात में स्थिर रूप से स्थित हैं || १७ ॥
सम्यक्त्वादि अनुत्तर प्रसिद्ध आठ गुणों से युक्त हैं स्वभावतः कर्म बन्धन से मुक्त और ऊर्ध्वगामी हैं ॥ १८ ॥
एरण्ड के बीज तथा अग्नि की शिखा के समान शीघ्र जाकर स्वामी तीनों लोगों के मस्तक पर वृद्धि और ह्रास से रहित तनुवात में प्रतिष्ठित हो गए । वे अनन्त सुख से संतृप्त और शुद्ध चेतन्य लक्षण वाले हैं ।। १९-२० ।।
सौ कल्पकाल में भी किया रहित, अचल, धर्मदव्य का अभाव होने से उसके आगे नहीं जाते हैं ॥ २१ ॥
तीनों कालों में उत्पन्न देवेन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधरों के, इन्द्र भोगभूमि के मनुष्य तथा चक्रवर्तियों का जो सुख है || २२ ||
उसका अनन्त गुना स्वामी नित्य भोग करते हैं। इस प्रकार के स्वामी समय-समय पर मुझे सुख करें || २३ ||
अन्य सब जो गुणरूप शरीर वाले प्रबुद्ध सिद्ध तीनों कालों में समुत्पन्न हैं, वे सदा पूजित और बन्दित हैं || २४ ॥
शुद्ध चैतन्य रूप सद्भाव वाले, जन्म, मृत्यु और जरा से अतीत संसार के हितकारी, समाराध्य वे कर्मों की शान्ति के लिए हों ।। २५ ।।
धात्री वाहन आदि राजा जो कि तब मुनि हो गए थे, उन सबने, अपने तपोयोग से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त किया || २६ ॥
जिस सुमन्त्र की भली-भाँति आराधना कर संसार का हितकारी ग्वाला भी इस प्रकार सुदर्शन हुआ, उसका अधिक क्या वर्णन किया जाय ॥। २७ ॥
अन्य भी बहुत से भव्यों ने परमेष्ठी के पदों का अत्यधिक उच्चारण कर संसार के सार स्वरूप सुख को निरन्तर पाया ॥ २८ ॥
तथा जिस परमानन्ददायक मन्त्र की आराधना कर कुत्ता भी देव हो गया तो भव्य देहियों की तो बात ही क्या है ? ॥ २९ ॥
उनके साररूप फल को इस लोक में श्रीमज्जिनेश्वर के बिना इन्द्र अथवा धरणेन्द्र कौन वर्णन करने में समर्थ है || ३० ॥
सु०-१४