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________________ एकादशोऽधिकारः अनन्तर जैन तत्त्वज्ञानियों में श्रेष्ठ सुधी, परमोदय वह सन्मुनि स्वामी धर्मोपदेश रूपी अमृत से भव्य जीवों को अत्यधिक तृप्त करते हुए, नाना तीर्थों में विहार करने से और प्रतिष्ठादि का उपदेश देने से श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्र के द्वारा कहे हुए धर्म की भली भांति वृद्धि करते हुए, अनेक व्रत, शीलादि, दान और पूजा के गुण समूहों से नित्य मार्ग प्रभावना कराते हुए, स्वयं कर्म के क्षय को चाहते हुए चारों ओर जिनों के ऊर्जयन्त ( गिरनार ) आदि सिद्ध क्षेत्रों में, पञ्चकल्याण मुमियों में, वन्दना, भक्ति करते हुए, समस्त जीवों के प्रति दयापरायण तथा विशुद्ध चित्त हो मुनिमार्ग के अनुसार विहार करते हुए, सुधी स्वामी ईर्यापथ से अवलोकन करते हुए पारणा के दिन पाटलीपुत्रपत्तन में आए || १-६॥ तब उस नगर ( पत्तन ) में पण्डिता धाई स्थित थी। कामदेव को जीतने वाले उन मुनीन्द्र को आया हुआ सुनकर, देवदत्ता से बोली। रे तुम मेरी कही हुई बात को सुनो। वह यह सुदर्शन निश्चित रूप से मुनि होकर आ गया है ।। ७-८ ॥ सौ मायाओं से युक्त महाकपटधारिणी उस वेश्या ने निज प्रतिज्ञा का स्मरण कर श्राविका का रूप बनाकर, विक्रिया रहित उन्हें नमस्कार कर ठहरा लिया। दुष्ट अभिप्राय वाली उन रुद्ध आशय वाले को घर के अन्दर ले गयी ।। ९-१० || जहाँ पर राजा की स्त्री ( भी ) काम से पीड़ित हो ( वहाँ पर ) जिसने सौ दुराचार किए, उस वेश्या का कहना ही क्या है ? ॥ ११ ।। वहाँ पर काम से जन्मत्त उन मुनीश्वर से वह बोली-है मुनि । आपका अच्छा रूप, यौवन चित्त को रजित करने वाला है ।। १२ ।। मन को अभीष्ट इन भोगों से इस समय सफल करो। नाना लोगों से आया हुआ मेरे पास बहुत सा धन है ॥ १३ ।। यह घन चिन्तामणि के समान अक्षय है, कल्पवृक्ष के समान उत्तम है । इस सबको ले लो। तुम्हारी इष्ट दासीपने को करूंगी ।। १४ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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