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- २७ - अधिकार ९-द्वादश अनुप्रेक्षा वर्णन
मुनिराज से अपना पूर्व भव सुनकर व संसार की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रन, संघर, निर्जरा, लोक, बोधि और धर्म इन बारह भावनाओं के स्वरूप का विचार (१.९१) । अधिकार १०-सुदर्शन का दीक्षाग्रहण और तप
सुदर्शन का अपने पुत्र सुकान्त को अपने पदपर प्रतिष्ठित कर मुनिदीमा ग्रहण करना ( १-५)। सुदर्शन के चरित्र से प्रभावित हो राजा धात्रीवाहन का भी अपने पुत्र को राज्य दे मुनि होना । रानियों का भी तप स्वीकार करना तथा अन्य भव्यजनों द्वारा श्रावक के व्रत अथवा सम्यक्त्व ग्रहण करना (८-१९) । सुदर्शन द्वारा मुनिचर्या का पालन एवं नागरिकों द्वारा सुदर्शन, मनोरमा एवं राजा के चरित्र की प्रशंसा । आहारदान व भक्ति ( २०-४५)। सुदर्शन का शानार्जन. गुरुभक्ति एवं मुनियतोंका परिपालन ( ४६-४९ ) । अहिमा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह त्याग इन पाँच प्रतों का उनकी पच्चीस भावनाओं का पाँच प्रवचन, माताओं का पंचेन्द्रिय संयम पंचलोंच', परिग्रह-जय तथा वन्दना सामायिक आदि गुणों का परिपालन ( ५०-१४८ ) । अधिकार ११-केवलज्ञानोत्पत्ति
धर्मोपदेश करते हुए सुदर्शन मुनि का ऊर्जयन्तादि सिद्धक्षेत्रों को वन्दना कर पाटलिपुत्र नगर में आहार निमित्त प्रवेश (१-३) । पण्ठिता धात्री के संकेत पर देवदत्ता गणिका द्वारा श्राविका का वेश धारण कर मुनिराज का आमन्त्रण तथा अपने यौवन और वैभव द्वारा उनका प्रलोभन (७-१६)। मुनि द्वारा संमार के स्वरूप शरीर की अपवित्रता और क्षणभंगुरता भोगों की भयंकरता व वैभव की चंचलना आदि का उपदेश देकर स्त्रो स्वभाव का चिन्तन करते हुए ध्यान में सल्लीनता (१५-३०) । देवदत्ता ने मुनि को अपने यौवनादि द्वारा प्रलोभित करने की नीन दिन तक चेष्टा की और अन्ततः निराश होकर मुनिराज को श्मशान में लाकर छोड़ दिया (३१-३७)। जो अभया रानी आतंच्यान से मरकर क्यन्तरो हुई थी उम का विमान आकाश मार्ग में स्खलित होने से उसने मुनि को देखा और उन्हें पहिचान कर बदले की भावना से घोर उपसर्ग करना प्रारम्भ किया । यक्ष 'ने आकर मुनि की रक्षा की | क्यन्तरो ने यक्ष से साल दिन तक युद्ध किया और अन्ततः परास्त होकर भाग गयी (३८-४३), मुनि का निश्चल ध्यान | नाना गुणस्थानों द्वारा कर्मप्रकृतियों का अय (४४-५७)। सुदर्शन मुनि द्वारा क्रम से कर्म भय कर केवलज्ञान तथा वर्धमान तीर्थंकर के सीर्थ में अन्तकृत्केवली पद