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________________ नवमोऽधिकारः पुत्र, मित्र, कलत्रादि के कारण यहाँ पर एक प्राणी नाना प्रकार के शुभाशुभ कर्म करता है || २७ ॥ भक संकट होने पर उस फल को नरक, पशुयोनि, मनुष्य अथवा स्वर्ग में अकेला भोगता है ।। २८ ।। अतः मुढ मन वाला जोव कुटम्ब आदि के प्रति अत्यधिक ममत्व करता हुआ अपने हित और अहित को नहीं जानता है ।। २९ ॥ जिनभक्ति परायण एक निस्पृह विनीतात्मा भव्य गुरु के चरणकमल को नमस्कार कर, रत्नत्रय को आराधना कर सुनिर्मल तप कर शुक्लध्यान से कर्मरूपी शत्रुओं को मार कर मोक्षालय में जाता है ।। ३०-३१ ।। इति एकस्वानुप्रेक्षा निश्चित से नीर क्षीर के समान शरीर में मिला होने पर भी जीव निश्चय से शरीर से अन्य है ।। ३२ ।। __ संसार में पुत्र, मित्र, स्त्रो, बान्धव आदि तो बात ही क्या है ? क्योंकि वे सब विशेष रूप से बहिर्भत प्रवृत्त होते हैं ॥ ३३ ॥ ___ जैसे कनक पाषाण में सुवर्ण सदा मिला हुआ है, तथापि अपने स्वरूप की अपेक्षा भिन्न रूप में ही स्थित है ।। ३४ ॥ उसी प्रकार जोब भो सवंदा ज्ञान और दर्शन वाला है । गुणों की स्वान स्वस्वरूप वह शरीर में विद्यमान है ।। ३५ ।। इति अन्यत्यानुप्रेक्षा यह शरीर मांस, हड्डी, खून और मलों से नित्य अपवित्र है, बीभत्स है, इसमें कृमियों का समूह है और क्षण मात्र में नष्ट हो जाने वाला ऐसा मानकर धीर, पण्डिनों को श्रीजिन, शास्त्र और साधुओं के प्रति भक्तिपूर्वक सुतपोयोग और नाना प्रकार के शुभवतों से प्रमाद और मद छोड़कर जिन बचनों के प्रति सावधान होकर अच्छा कुल पाकर सुखाथियों को फल ग्रहण करना योग्य है ।। ३८ ।। इति अशुचि अनुप्रेक्षा टूटी हुई द्रोणी में जिस प्रकार जल प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन, अबिरति, प्रमाद, कषाय तथा योगों से प्राणी के कर्मों का आस्रव होता है ॥ ३९ ।। परिणाम विशेष से शुभ और अशुभ के भेद से वह आस्रव दो प्रकार का कहा गया है, ऐसों बुद्धिरूपी धन वाले व्यक्तियों को जानना चाहिए ॥ ४० ॥ इति पासवानुपेक्षा सु०-२१
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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