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________________ १३१ अष्टमोऽधिकारः तुम सदा जिनधर्म को जानने वाले हो, तुम सदा शील के सागर हो, तुम सदा शान्ति के आगार हो, तुम सदा दोषों से रहित हो ॥ १५ ॥ ____ अहो, जिस प्रकार मेरु पर्वतों के मध्य महान् है, क्षीरसागर समुद्रों में महान है, उसी प्रकार , औधों में महान है ।। १६ ।। हे दयारस के समुद्र ! वणिग्वंश शिरोमणि ! तुम मेरे ऊपर कृपा कर शीन हो आधा राज्य ग्रहण करो ।। १७ ।। उसे सुनकर वह बोला-हे राजन् ! तीनों भुवनों में शुभ और अशुभ के फलस्वरूप प्राणियों को सुख और दुःख होते हैं ॥ १८ ॥ पृथ्वी तल पर आज मेरे कर्म से जैसा-तैसा हो गया । किसे दोष दिया जाय ? तुम प्रजा के हितकारी राजा हो । १९ ।। हे प्रभु ! सुनो, मैंने पहले मन में प्रतिज्ञा की थी कि यदि इस उपसर्ग से मेरा उद्धार हो जाएगा तब निश्चित रूप से, पञ्च महायतों का समूह ग्रहण करूँगा । सुयुक्ति से पाणिपात्र में भोजन कलंगा ।। २०-२१॥ अतः हे राजन् ! राज्य लक्ष्मी के स्वीकार करने के विषय में मेरा नियम है। इस प्रकार आग्रहपूर्वक मन, वचन, कायपुर्वक सबकी क्षमा की ॥ २२ ।। यह ठीक ही है कि लोक में सज्जनों के लिए क्षमासार रूप आभूषण है, जिस प्रकार समस्त क्रियाकाण्ड में सम्यग्दर्शन सुख का कारण है ।। २३ ।। अनन्तर भूतल को पवित्र करने वाले जिनालय में जाकर इन्द्र और चक्रवर्ती के द्वारा अचित जिनों को वहाँ पूजा कर, अत्यधिक स्तुति की। हे जिनपुङ्गव ! तुम्हारी जय हो । जन्म, जरा और मरण रूपी रोग के लिए हे श्रेष्ठ वैद्य ! तुम्हारी जय हो ॥ २४-२५ ।। समस्त दोषों को क्षय करने वाले, तीनों लोकों के नाथ ईश आपको जय हो । तीनों लोकों के भव्य जीव रूपी कमलों के समूह के लिए सूर्य रूप आपकी जय हो ।। २६ ।। लोकालोक के प्रकाशक केवलज्ञान ! तुम्हारी जय हो। यहाँ पर करोड़ों विघ्नों के बिनाशक जिननाथ ! तुम्हारी जय हो ।। २७ ।। धर्मतीर्थ के स्वामी, परम आनन्ददायक ! तुम्हारी जय हो । समस्त तत्त्वार्थसागर की वृद्धि के लिए चन्द्रमा स्वरूप तुम्हारी जय हो || २८ ।। समस्त प्राणियों का हित करने वाले, सबके स्वामी, सर्वज्ञ, तुम्हारी जय हो । शीलसागर, जितकाम तुम जयशील हो ।। २९ ।।
SR No.090479
Book TitleSudarshan Charitram
Original Sutra AuthorVidyanandi
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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