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- १९ - विशालकीति और उनके बाद भीति पट्टाधीश हए । शुभफोति के बाद धर्मचन्द्र संवत् १२७१ की श्रावण शुक्ल ७ को पट्टारूढ़ हुए तथा २५ वर्ष पट्ट पर रहे। इनके वाद रत्नकीति संवत् १२९६ की भाद्रपद कृ० १३ को पट्टास्क हुए। ये १४ वर्ष पट्ट पर रहे । रत्नकोति के पट्ट पर दिल्ली में संवत् १३१० को पौष शुक्ल १५ को भट्टारक प्रभाचन्द का अभिषेक किया गया। प्रभाचन्द्र ५४ वर्ष नस पट्टाधोश रहे । भट्टारक प्रभाबन्द्र ने पद्मनन्दि को अपने पद पर स्थापित किया। ये संवत् १३८५ को पौष शुक्ल ७ मे ६५ वर्ष तक पट्टाषोश रहे । भट्टारक पदमनन्दि के लोन प्रमुख शिष्यों द्वारा तीन भट्टारक परम्परायें आरम्भ हुई, जिनका आगे अनेक प्रशास्त्राओं में विस्तार हुला। इनमें शुमचन्द्र का वृत्तान्त दिल्ली-जयपुर शाखा में, मकलकीति का वृत्तान्त ईहर शाखा मैं नथा देवेन्द्र कीति का वृत्तान्त सुरत शाखा में देखना चाहिए।' भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० १६९ ने माद ( ललितपुर ) से प्राप्त प्रतिमा लेख में इतना जात होता है कि देवेन्द्रकीति वि० सं० १४९३ के पूर्व भट्टारक पद को अलंकृत कर चुके थे। इनके प्रमुख शिष्य विद्यानन्दी परवार थे। वि सं० १४९३ के पूर्व ही चन्देरी पट्ट स्थापित किया जा चुका होगा, फिर भी उनको गुजरात में परी प्रतिष्ठा बनी हुई थी और उनका गुजरात से सम्बन्ध विग्छिन्न नहीं हया था। सूरत के पास गंदेर पट्ट का प्रारम्भ होमा ओर उस पर विद्यानन्दी का अधिष्ठित होना तभी सम्भव हो सका होगा।
वि सं० १४६१ में भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति ने गांधार से भट्टारक पट्ट को लाकर रांदेर में स्थापित किया और भद्दारक विवानंदी उसी पट्ट को वि. सं० १५१८ में सूरत ले आये ।' चन्देरी के प्रतिमालेखों को देखने से यह भी पता लगता है कि भट्टारक वेवेन्द्रकोति अठसखा परवार थे। विद्यानन्द को एक पट्टावली में अष्टभाखा प्रारवाटवंशावलम तथा हरिराजकुलोद्योतकर कहा गया है, जिससे जात होता है कि वे प्राबाट जाति के थे तथा उनके पिता का नाम हरिराज था । सुदर्शन चरित की रचना
सुदर्शनचरित के अन्तिम अधिकार के ४२ वें पद्य में कहा गया है कि इसकी रचना विद्यानन्दि ने गंधारपुरी के छत्र-ध्वजा आदि से सुशोभित जैनमन्दिर में १. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० ९३-९५ । २. मिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन सन्य, पृ० ३६२ । ३. वही, पृ० ३६५ । ४, सुदर्शनचरितम् ( प्रस्तावना ), पृ० १५ । .