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तस्पट्टपद्माकर भास्करोऽत्र देवेन्द्र कीति मुनि चक्रवर्ती । तत्पादपङ्केजसुभक्तियुक्तो विद्यादिनन्दीचरितं चकार ।।४९|| तत्वादपट्टेऽजनि महिलभूषण गुरुश्चारित्रचूडामणिः, संसाराम्बुधितारणकचतुरश्चिन्तामणिः प्राणिनाम् । सुरि श्री श्रुतसागरों गुणनिधिः श्री सिंहनन्दा गुरुः, सर्वे ते यति सनमाः शुभतराः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।। ५०|| गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभम् । नेमिदनो व्रती भक्त्या भावयामास शर्मदम् ।।५१।।
अर्थात् मूलस में, श्रेष्ठ सरस्वती गच्छ और अतिरम्य बलात्कारगण में कुन्दकुन्द नामफ मुनोन्द्र के वंश में महामुनोन्द्र प्रभाचन्द्र हुए | उनके पट्ट में भव्यजनों के लिए सूर्य के समान मुनि पद्मनन्दी भट्टारक हुए। वे तीनों लोकों के हितकारी तथा गुणरूपी रस्गों के ममुद थे। वे यतीश सज्जनों के सार स्वरूप सुख को करें। उनके पट्ट रूपी कमलों के लिए सूर्य स्वरूप देवेन्द्रकीति मुनि चक्रवर्ती हुए। उनके चरणकमलों के प्रति भक्ति से युक्त विद्यानन्दी ने (सूदर्शन) चरिन बनाया। उनके पादपट्ट पर चारित्रचूड़ामणि मल्लिभूषण गुरु हुए । वे प्राणियों को संसार रूपी समुद्र से तारने में एकमात्र चतुर चिन्तामणि थे। श्री श्रुतसागरसूरि, गुणनिधि सिंहनन्दी गुरु ये सब शुभतर यति श्रेष्ठ आपका मङ्गल करें।
गुरु के उपदेश से यह शुभ, सुन्न देने वाले इस सच्चरित्र को नेमिदत्त प्रती ने भक्ति से भावना को ।
इस प्रकार सुदर्शनचरित के कर्ता विद्यानन्दि को गुरुपरम्परा यह है
मूलसंध, सरस्वती गच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्द्रान्वय-प्रभाचन्द्र, पदमनन्दी, देवेन्द्रकीति और विद्यानन्दो । विद्यानन्दि के चार शिष्य हुए-मल्लिभूषण, श्रुतसागर, सिंहनन्दि और नेमिदत्त । बलास्कारगण ___ प्रो० वी० पी० जोहरापुरफर ने अपने ग्रन्थ भट्टारक सम्प्रदाय में बलात्कारगण की उत्तर शाला के विषय में कहा हूं--- . बलात्कारगण की उत्तरभारत की पीठों की पट्टावलियों में वसन्तकीति पहले ऐतिहासिक भट्टारक प्रतीत होते हैं। पट्टावलियों के अनुसार ये संवत् १२६४ की माप शुक्ल ५ को पट्टारूढ़ हुए तथा एक वर्ष ४ माह पट्ट पर रहे । इन्हें वनवासी और होर द्वारा नमस्कृत कहा गया है। श्रुतसागर सूरि के अनुसार ये ही मुनियों के वस्त्रधारण के प्रवर्तक थे। वसन्तकीप्ति के बाद