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हो जावे अतःग्रहण और धारण करने में समर्थ तीक्ष्ण बुद्धि वाले दो मुनिराज (यहाँ) भिजवाये जावें (आप भिजवावें) यही लेख-पत्र का तात्पर्य था।
सम्यगवधार्य तैरपि तथायिधौ द्वौ मुनी समन्विष्य । प्रहितौ तायपि गत्वा चापतुररमूर्जयन्तगिरिम् ॥१११ ।।
अन्ययार्थ- (तैरपि) उन मुनिराजों द्वारा (सम्यक अवधार्य) भले प्रकार निश्चय करके (तथाविधौ) उस प्रकार के तीक्ष्ण बुद्धि वाले (द्वौ मुनी) दो मुनियों को (समन्विग्य) खोज करके (ग्रहितौ) भेजा गया (तावपि) वे दोनों भी (गत्वा) जाकर यथा शीघ्र (ऊर्जयन्तगिरि च आपतुः) ऊर्जयन्तगिरि पहुंचे।
अर्थ-उन वेणाक तटवर्ती मुनिराजों द्वारा भले प्रकार निश्चय करके उस प्रकार के तीक्ष्ण बुद्धि वाले दो मुनियों को खोजकर धरसेनाचार्य महाराज के अनुरोध से वहाँ भेजा वह मुनिद्वय भी शीघ्र ही ऊर्जयन्त गिरि पहुंचे।
आगमनदिने च तयोः पुरैय धरसेनसूरिरपि रात्रौ । निजपादयोः पतन्तौ धवलवृषावै क्षत् स्वप्ने ॥११२ ।।
अन्वयार्थ- (धरसेन सूरिरपि) धरसेन आचार्य ने भी (रात्रौ) रात्रि में (पुरैव) उन दो मुनियों के आगमन के पहले ही (तयोः) उन दोनों के (आगमन दिने) आने के दिन (निजपादयोः) अपने पांवों में (पतन्तौ) गिरते हुए (धवलवृषौ) दो सफेद बैल (स्वप्ने ऐक्षत) स्वप्न में देखे। . अर्थ-उन धरसेनाचार्य ने उन दो मुनियों के आने के दिन उनके आने के पहले ही रात्रि में अपने पावों में पड़ते हुए दो सफेद बैल स्वप्न में देखे।
तत्स्वप्ने क्षणमात्राज्जयतु श्रीदेयतेति समुपलपन् । उदतिष्ठदतः प्रातः समागतावैक्षत मुनी द्वौ ॥११३ ।।
अन्वयार्थ- (तत्स्वप्नेक्षणमात्रात्) उस स्वप्न को देखने मात्र से (श्रीदेवता जयतु) श्रीदेवता जयवन्त हो (इति) इस प्रकार (समुफ्लपन्) कहते हुए (प्रातः) प्रातःकाल (उदतिष्ठदतः) उठते हुए ही (समागतौ) आये हुए (द्वौ मुनी) दो मुनि (ऐक्षत) देखे।
अर्थ-उस स्वप्न को देखने मात्र से 'श्री देवता जयवन्त हों ऐसा कहते हुए प्रातःकाल उठते ही उन्होंने आये हुए दोनों मुनियों को देखा।
श्रुतावतार
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