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आदाय लेखपत्रं तेऽप्यथ तद्ब्रह्मचारिणो हस्तात् । प्रविमुच्य बन्धनं वाचयाम्बभूवुस्तदा महात्मानः ॥१०७ ।।
अन्वयार्थ- (अथ) इसके अनन्तर (तेऽपि महात्मानः) वे महात्मा साधुजन (तद् ब्रह्मचारिणो हस्तात्) उस ब्रह्माचारी के हाथ से (लेख पत्रं आदाय) उस पत्र को प्राप्त कर (बन्धनं प्रविमुच्य) उसके बन्धकों को खोलकर (तदा) उस समय (वाचयाम्बभूवुः) पढ़ा।
...अर्थ-उन महात्मा माधुओं ने भी उस ब्रह्मचारी के हाथ से पत्र लेकर उनका बन्धन खोलकर उस समय पढ़ा |
स्वस्ति श्रीमत इत्यूर्जयन्ततटनिकटचन्द्रगुहावासाद्धरसेनगणी येणाकतटसमुदितयतीन् ।।१०८ ।। अभिवन्ध कार्यमेयं निगदत्यस्माकमायुरयशिष्टम्। स्यल्पं तस्मादस्मच्छू तस्य शास्त्रस्य व्युच्छित्तिः ।।१०६ ।। न स्याद्यथा तथा द्वौ यतीश्वरौ ग्रहणधारणसमथौँ । निशितप्रज्ञौ यूयं प्रस्थापयतेति लेखार्थम् ।।११।।
अन्वयार्थ- (स्वस्ति श्रीमत) कल्याण भाजन हों, शोभा युक्त हों (ऊर्जयन्ततट निकटचन्द्रगुहावासत्) ऊर्जयन्त की तलहटी के निकट चन्द्र गुहा निवास से (धरसेन गणी) धरसेन आचार्य (वेणाकतटसमुदितयतीन्) वेणाक नदी के तटवर्ती स्थित मुनियों को (अभिवंद्य) नमस्कार कर (एवं कार्यं निगदति) यह कार्य कहता है कि (अस्माकं) हमारी (आयुः) आयु (स्वल्प) थोड़ी (अवशिष्टं) बची है (तस्मात्) इस कारण से (अस्पत् श्रुतस्य) हमारे द्वारा अधीन श्रुतज्ञान की या सुने गये (शास्रस्य) शास्त्र की (व्युच्छित्ति) विच्छेद (यथा न स्यात्) जैसे न हो सके (तस्मात्) इस कारण से (ग्रहण धारणसमर्थो) ग्रहण करने एवं उसकी धारणा करने में समर्थ (निशित प्रज्ञौ) तीक्ष्ण प्रतिभा वाले (द्वौ यतीश्वरौ) दो मुनिवर (प्रस्थापयत्) भेजिए (इति) इस प्रकार (लेखार्थम्) लेख का अर्थ था।
अर्थ- कल्याण भाजन एवं शोभा युक्त हों। ऊर्जयन्त (गिरिनार) पर्वत की तलहटी में स्थित चन्द्र नामक गुफा के आवास से आचार्य धरसेन वेणाक नदी के तट पर एकत्र मुनिराजों की वन्दना कर यह कार्य कहता है कि हमारी आयु अब अलप शेष है इस कारण हमारे द्वारा अधीन शास्त्र (श्रुतज्ञान) का जैसे विच्छेद न
श्रुतायतार