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(शिवदत्तः) शिवदत्त (अन्यः अर्हद्दत्तः) और अर्हदत्त नामक (एते आरातीया यतयः) ये आरातीय यति (अङ्गपूर्व देशधराः) अगपूर्व देशधारी (अभवन्) हुए।
अर्थ-उन चार आचाराका, कि के पीछे विन्धर, श्रीदत, शिष्टन तथा अर्हद्दत्त ये चार आरातीय यति एक देश अगपूर्वो के धारी हुए।
सर्वांग पूर्वदेशक देशवित्पूर्वदेशमध्यगते । श्रीपुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽहंदयल्याख्यः ।।५।।
अन्वयार्थ- (सर्वाङ्ग पूर्व देशैक देश वित्पूर्व देशमध्य गते) सम्पूर्ण अंगपूर्वो के एक देश ज्ञानधारियों तथा पूर्वो के एकदेश पूर्व ज्ञानधारियों के मध्य में (श्रीपुण्ड्रवर्धनपुरे) श्री पुण्ड्रवर्धन नामक नगर में (अर्हबल्याख्याः) अर्हबलि नामक (मुनिः अजनि) मुनि हुए |
अर्थ-अनन्तर सम्पूर्ण अपूर्वो के एकदेश ज्ञानधारियों तथा पूर्वो के एक देश ज्ञानधारियों के बीच श्री पुण्ड्रवर्धन नगर में अबलि नामक एक मुनि हुए।
स च तत्प्रसारणाधारणा विशुद्धातिसक्रि योद्युक्तः। अष्टांगनिमित्तज्ञः संघानुग्रहनिग्रहसमर्थः ॥८६॥
अन्वयार्थ- (स च) और वह (तत्प्रसारण धारणाविशुद्धातिसत्तियोयुक्तः) उस श्रुतज्ञान के प्रसारण धारण विशुद्धि करण आदि सक्रियाओं में तत्पर, (अष्टानिमित्तः) अष्टानिमित्तों का ज्ञाता तथा (संघानुग्रहनिग्रहसमर्थः) मुनि संघ पर अनुग्रह तथा निग्रह करने में समर्थ थे।
अर्थ-और वह अर्हबलि आचार्य उस श्रुतज्ञान के प्रसार करने, धारण करने और उसे निर्मल बनाने आदि उत्तम क्रियाओं में पूर्ण संलग्न अष्टांग निमित्तों के ज्ञाता तथा मुनि संघ के अनुग्रह निग्रह (उपदेश प्रायश्चित्त) आदि में पूर्ण समर्थ
थे।
आस्ते संवत्सरपञ्चकावसाने युगप्रतिक्रमणम् । कुर्वन्योजनशतमात्रवर्तिमुनिजनसमाजस्य ॥८७ ॥ अथ सोऽन्यदा युगान्ते कुर्वन् भगवान्युगप्रतिक्रमणम् । मुनिजनवृन्दमपृच्छत्किं सर्वेऽप्यागता यतयः ॥८८ ।। अन्ययार्थ- (अथ) अनन्तर (योजन शतमात्रवर्ति मुनि समाजस्य) सौ
श्रुतावतार
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