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तीर्थकर उत्पन्न हुए उन्होंने भी जैसा वृषभ जिनेन्द्र ने तत्वोपदेश किया था वैसा ही सम्पूर्ण आगम-धृतरूप-तत्वोपदेश अपने शिष्यों को सम्यक प्रकार देकर उन्हीं वृषभ जिनेन्द्र की भाँति अनुपम निर्वाण की प्राप्ति की।
एवमजितादिचन्द्रप्रभान्ततीर्थेशिनामतिक्रान्ता। सागरकोटीनां त्रिंशक्रमाद्दशभिरथ नदभिः ॥२३॥ लक्षैस्तथा नवत्या नवभिश्च सहसः शतैनवभिः । शम्भवमुख्यात् श्रुतमापनमत्या च पुष्पदन्तान्तात् ॥२४ ।।
अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (अजितादिचन्द्रप्रभान्ततीर्थेशिनां) अजितनाथ तीर्थंकर आटि में हैं जिनके ऐसे चंद्रप्रभ आठवें तीर्थंकर पर्यन्त तीर्थंकरों के (सागर कोटीनां त्रिंशक्रमात दशभिः अथ नवभिः लक्षः अतिक्रान्ता) द्वितीय तोहर की परम्परा में तीस लाख करोड़, तत्तीय संभवनाथ के परम्परा में दश लाख करोड़ सागर, अभिनन्दमाथ की परम्परा में नौ लाख करोड़ व्यतीत होने पर, (नवत्या नत्रभि सहस्रकैः ननभि शतैः अतिक्रान्ते) सुमति नाथ की परम्परा में नब्बे हजार करोड़, पद्मप्रभ भगवान् की परम्परा में नौ हजार करोड़, सुपार्श्वनाथ भगवान् की परम्परा में नौ सौ करोड़ सागर समय बीतने पर चन्द्रप्रभ हुए। चन्द्रप्रभ भगवान् की परम्परा में नब्बे करोड़ सागर व्यतीत होने पर पुष्पदन्त हवें तीर्थकर हए। (च) और (वतमापनमत्या) आगम से प्राप्त ज्ञान से जाना जाता है कि(शम्भवमुख्यात् पुष्प-दन्तात्) संभवनाथ भगवान् से लेकर पुष्पदन्त तक श्रुतपरम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रही।
अर्थ- इस प्रकार, अजिनाथ भगवान् द्वितीय तीर्थंकर से चन्द्र प्रभ भगवान आठवें तीर्थंकर तक तीस लाख करोड़ सागर, दश लाख करोड़ सागर, नौ लाख करोड़ सागर, नब्बे हजार करोड़ सागर, नौ हजार करोड़ सागर, नौ सौ करोड़ सागर, नब्बे करोड़ सागर, समय व्यतीत हो जाने पर पुष्पदन्त भगवान नौवें तीर्थंकर तक यह श्रुत निरन्तर चला।
प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ऋषभदेव के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर व्यतीत होने पर द्वितीय अजितनाथ तीर्थंकर हुए।
अजित नाथ तीर्थंकर के पश्चात् तीस लाख करोड़ सागर व्यतीत होने पर । सम्भवनाथ हुए।
श्रुतायतार
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