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है चेतन ! ऊपर उठ नीचे मत गिर। हि दो अनुषाव सहित ** ** * **** * * * ३
____ आज हम जिस कथा का वर्णन पाठकों के सामने रखना चाहते हैं, वह बीसवें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी के समय का है। कथा निर्देशक श्रमण भगवान महावीर के गणधर इन्द्रभूति ( गौतम स्वामी ) है।
उस समय भारतवर्ष के मगध देश में बडे प्रतापी महाराजा श्रेणिक (बिम्बसार ) राज्य करते थे। उनके समान बीर, धीर, ज्ञानी, राजनीति-विशारद प्रजापालन में तत्पर दूसरा कोई न था, इसी कारण उन्हें लोग सम्राट मानते थे | उनकी राजधानी राजगृही में थी, वे श्रमण भगवान महावीर के परम भक्त थे ।
एक बार श्री गौतम गणधर, भगवान का आदेश प्राप्त कर राजगृही में पधारे । ये समाचार हवा के समान क्षण मात्र में चारों ओर फैल गए । घर घर में बस यही एक चर्चा थी कि 'श्री प्रथम गणधर का नगर में पदार्पण हुआ है" शीघ्र ही उन्हें वन्दन कर अपना जीवन सफल बनाएं । स्त्री पुरूषों के जुण्ड के जुण्ड ‘शतं विहाय' वचनामृत पान की लालसा से समवसरण की ओर प्रस्थान कर भगवान महावीर की जय ! गौतम गणधरकी जय हो ! जय हो !! जय घोष के साथ आगे बड़ते चले जा रहे थे। सम्राट श्रेणिक भी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ यथा-समय समवसरण में आ पहुँचे। समस्त श्री संघ ने अनुपम श्रद्धा, भक्ति, और विधि से गुरु वन्दन कर प्रार्थना की गुरूदेव ! कृपा कर धर्मोपदेश दें।
श्री गणधर भगवाणन की देशना ..
वित्तेन ताणं न लमे पमत्ते, इमम्मि अदुवा परत्था । प्रिय महानुभावों !
आलसी और स्वार्थी मनुष्य केवल धन से अपना संरक्षण नहीं कर सकते हैं। उन्हें न यहां शांति मिलती है, न परलोक में ।
मानव सुख की खोज करने चला है, पर मार्ग में भटक गया है। उसे अपने लक्ष्य का पता है, पर राह भूल गया है । मानव ने सुख देखा है पैसे में, उसके श्रम का केन्द्र हो गया है पैसा । आज मनुष्य पैसे के लिए अपनी मानवता बैंच रहा है।
भाई, भाई का नहीं, मां बेटी की नहीं, पिता, पुत्र का नहीं, पति पत्नी का नहीं, मालिक मजदूर का नहीं, सेठ मुनीम के आपस में लड़ाई झगडे, मन मुटाव का कारण है पैसा । कई क्रोधी निर्दयी मनुष्य मानवता को भूल एक दूसरे के प्राण तक ले लेते हैं।