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चार गनि के दुःख से डरे, तो न ज मन्त्र परभाव । शुद्धातम चिनन करे. मरज सिद्ध हो जाय ॥ ३८०
%25A4 %AR श्रीपाल राम नहीं । मेरु पर्वत एक देखने का लम्बा चौड़ा एक मोटा पत्थर है । किन्तु अनुभवी मानव के स्थिर मन के समान उसमें पल में भव से पार होने की क्षमता नहीं। कामभ और कल्पवृक्ष ये दोनों मिट्टी और लक्कड़ है । मिना विशेष पुण्योदय ये हाथ लगना भी एक समस्या है, यदि मिल भी जाए तो इनसे भत्र भ्रमण का अन्त होना तो असंभव ही है । अनुभवी महापुरुष को आनत्र और मोह राजा सदा दूर से ही नमस्कार करते हैं । क्योंकि वे समझते हैं कि अनुभव रंग का सम्बन्ध विशुद्धि आत्मा से है पुद्गल से नहीं ।
हे प्रभो! परम कृपालु आप जिस के सामने देखते हैं तो क्या उसके सामने संसार की कोई शक्ति आँख उठाकर देख सकती हैं ? नहीं । अत: अब में आपकी शरण पाकर निर्भय हूँ। निश्चित ही मेरे गेम रोम में अनुभव गुण विकसित हो चुका है। मेरा हृदय अनुपम आनन्द से फूला नहीं समाता | मेरी अन्तरात्मा में पूर्ण श्रद्धा और दृढ़ विश्वास है कि अब भविष्य में कर्म राजा मुझे अपने ध्येय और सन्मार्ग से कदापि डिगा न सकेगा।
संभव है श्रीपाल रास के पाठक और श्रोता गण यह समझे कि यशोविजयजी व्यर्थ ही आत्म प्रशंसा कर बातें बना रहे हैं । महानुभावो ! याद रखो अनुभवी मानव सत्य को प्रकाश में लाने से कदापि न चर्केगा। जो मुर्ख सत्य पर पर्दा डालते हैं वहाँ निःसंदेह अनुभव का होना असंभव है। "कूद कपट, ईर्षा-द्वेष करना एक महान अपराध. भयंकर पाए है । पीट और महापीठ मुनि को ईर्षा वश मनुष्य भव से हाथ धो कर उन्हें ब्रानी सुन्दरी के भव में स्त्री पर्याय की विडम्बना का सामना करना पड़ा।
मैंने आपके समक्ष जग-जन हिताय अपने शुद्ध हृदय से स्पष्ट दो शब्द रखे हैं। अनुभव सिद्ध रचना का रंग कदापि कीका कहीं होता । अर्थात् मैने श्रीपाल-मयणा की रसीली कथा को अनेक राग रागिनी दोहो में ताल लय के साथ माकर लिखी है। मेग आपसे हार्दिक अनुरोध है कि आप नब पद श्रीसिद्धचक्र महिमा दर्शक इस चरितामृत का बड़ी श्रद्धा भक्ति से बार बार पान कर विशुद्धि आत्मस्वरूप और महत्वपूर्ण अनुभव ज्ञान पाने की तीव्र पीपासा को शांत कर परमपद पाए । यही शुभ कामना । शुभं भूयात् । ॐ शान्तिः ।
कलश
(राग धना श्री) तपगच्छ नंदन सुर ता प्रकटया, हीर विजय गुरु गया जी । अगवर बादशाहे जस उपदेशे, पड़ह अमार बजाया जी ॥१॥