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निश्चय वाणी सांभली साधन तजवा नोय । निश्चय राखी लक्षमा, साधन करवा सोय नो ॥ ३७२ NARRIA * ** श्रीपाल रास हुए हैं। अपनी आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को समझ उसमें ही सदा मगन रहने में ध्याता, ध्येय और ध्यान की सफलता और बुद्धिमानी है।
__ नवपद और आत्मा के अभेद रंग में रंगे हुए मानव के हृदय में न तो भगवान के प्रति राग ही रहता है और न संसार के प्रति द्वेष | अतः वह असंगी मानव अपने शुद्धोपयोग और उदासीन भाव से मध्यस्थ बन सदा परम सुखी रहता है। सच है, अनुपम सुख का भंडार बाहर नहीं; मानव के विशुद्ध विचार हृदय और आचरण में है ।
चौथा खण्ड-ढाल बाहरवीं
(राग स्वामी सिमंधर उपदिशे) अरिहंत पद ध्यातो थको, दवह गुण पज्जाय रे । भेद छेद करी आतमा, अरिहंत रूपी थाय रे ॥१॥ वीर जिनेश्वर उपदिशे, साँभलजो चित्त लाई रे। आतम ध्याने आतमा, ऋद्धि मिले सवि आई रे ॥२॥ वी. रूपातीत स्वभाव जे, केवल दंसण नाणी रे। ते ध्याता निज आजमा, होय सिद्ध गुण खाणी रे ॥३॥ वी. ध्याता आचारण भला, महामंत्र शुभ ध्यानी रे । पंच प्रस्थाने आतमा, आचारज होय प्राणी रे ॥४॥ वी. तप सज्झाए त सदा, द्वादश अंगना ध्याता रे। उपाध्याय ते आतमा, जगबंधव जग भ्राता रे ॥५|| वी. अप्रमत्त जे नित्य रहे, नवि हरखे नवि साचे रे । शांत सुधारस आतमा शुं मुंडे शुं लोचे रे ॥६॥ सम संवेगादिक गुणा, क्षय उपशम जे आवे रे । दर्शन तेहिज आतमा, शु होय नाम धरावे रे ॥७॥ वी. ज्ञानावरणी जे कर्म छे, क्षय उपशम तस थाय रे । तो हुए एहिज आतमा. ज्ञान अबोधता जाय रे ॥८॥ वी०