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________________ बाह्य क्रिया मां गचता, अंतर भेद नाई। ज्ञान मार्ग निषेधता. वह क्रिया जड़ ओहि || ३६६ 96RRESTERN श्रीपाल रास यदि मानव की विचारधारा विशेष शुद्ध होती रहे तो वह अड़तालीस मिनिट से भी कम समय में सहज ही लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लेती है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को नियमित अधिक न बन सके तो कम से कम एक सामायिक तो अवश्य कर लेना चाहिए। १० देसावगाशिक व्रतः-व्यर्थ ही इधर-उधर न भटक किसी पर्व कल्याणक तिथि या अपनी अपनी सुविधानुसार यथासमय आरभ्भ-समारभ्भ, पाप-व्यवसायों का त्याग कर एकसाथ तीन या दस सामायिक कर स्वाध्याय-ध्यान-आत्मचिंतन करना देसावगाशिक व्रत है । ११ पौषध व्रत-शाश्वत सुख-मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन चारित्र है । इस पद को पाने की लालसा से अपनी सुविधानुसार दिन-रात, कंवल दिन या रात स्वाध्याय ध्यान में रह कर उपवास-आयंबिलादि व्रत करना पौषध व्रत है। पौषध का फल:-एक दिन-रात का पौपध करने वाला मानव सत्तावीस सो क्रोड़, सत्तोतर कोड़, सचोतर लाख, सत्तोतर हजार, सात सो सत्तोतर पल्योपम और एक पल्योपम का सातवां आठवां भाग देवलोक का आयुष्य बांधता है। १२ अतिथि संविभाग व्रत-साधु, साध्वी, संत-महात्मा या किसी ब्रह्मचारी श्रावक-श्राविका को बड़े भक्तिभाव, उदार मन से आहार-पानी, औषध और उनके ज्ञान ध्यान, संयम-साधना के उपकरण प्रदान करना अतिथि-संविमाग व्रत है । आत्मार्थी मानव को एक क्षण भी अव्रत में न रह आज ही श्रावक के बारह व्रत ग्रहण कर उसका हृदय से आचरण करना ही कल्याणमार्ग है । प्रतधारी मानव को सागर सम अपार आश्रयों का बंध घट कर शेष एक जलबिन्दु इतना ही आश्रव बंध होता है । सर्व विरति चारित्र:-पौषध में सीमित त्याग है तो चारित्र में आजीवन | बाल-लुंचन, पैदल भ्रमण, अनियत-वास, भूमिशयन, इन्द्रियों पर अधिकार, भूख-प्यास, शीत ताप, मच्छर-खटमल, रोगादि कष्टों को हंसते हंसते सहन करना । आहार पानी मिले तो ठीक, न मिले तो संतोष से उसे तपोवृद्धि मान चुपचाप अपने स्वाध्याय ध्याय में संलग्न रहना; संयम आराधना के आवश्यक पदार्थ गृहस्थ से दान लेकर ही अपने उपयोग में लेना सर्वविरति चारित्र है । चारित्र की तुलना में एक छः खण्ड अधिपति चक्रवर्ती अपने संपूर्ण राज्य अष्टसिदि, नव-निधि को तृण के समान मानते हैं। तभी तो भगवान शांति, कुंथु, अरनाथ, भरत चक्रवर्ती ने अपनी विपुल विभूति को ठुकरा कर इस परम तारक चारित्र की शरण ली। चारित्र एक महान तप है । अधिक नहीं केवल एक ही वर्ष की विशुद्ध चारित्राराधना मानव को सहज ही निःसंदेह अनुत्तर-विमान के द्वार पर पहुंचा देती है। यदि एक साधारण सा राह
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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