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अविवेकी मित्र से ज्यादा खताम1 कोई चीज नहीं, उससे तो बुढ़ा दुश्मन अच्छा । ३६० 2
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5AACHAR-56 श्रीपाल रास है। पर पूर्ण श्रद्धा-विश्वास होना सम्यग्दर्शन का पहला अंग है (२) निक्कंखिय-किसी प्रकार के प्रलोभन में पड़कर सोसारिक सुखों की अथवा पर-मत की इच्छा से दूर रहना सम्यग्दर्शन का दूसरा निःकांक्षित अंग है । (३) निधित्तिगिच्छा-अपने जप-तप की साधना के फल में संशय न करना, साधु-साध्वी के मैले वस्त्र और शरीर को देख मन में ग्लानि न करना सम्यग्दर्शन का तीसरा विचिकित्सा अंग है। (४) अमृढदिट्टी-सम्यग्दृष्टि मानव के विचार और प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होती है। वह किसी दूसरे के देखा-देखी अंधानुकरण न कर प्रत्येक कार्य को बड़ी ही सावधानी से करता है। सदा प्रमाद से बच कर पर-हित और अपनी आत्म विशुद्धि की आगे गाना सम्योग का गोला अमूह दृष्टित्व अंग है। (५) उयपूहः-जो गुणी जन, पढ़े-लिख विद्वान है, संयमी, धर्म-प्रभावक श्रीसंघ और देश-सेवक, सम्यग्दर्शन के आराधक हैं उनको तन मन, धन से सहयोग देकर उन्हें आगे बढ़ाने का प्रयत्न करना, गुणानुरागी बन गुणवान उत्तम स्त्री-पुरुषों की हृदय से प्रशंसा करना सम्यग्दर्शन का पाँचवा उपवृहण अंग है । (६) थिरीकरणमानव जीवन भी एक समस्या है। "सब दिन न होत एक समान "-सच है, जीवन में किसी समय धूप तो किस समय छाह का प्रसंग आ ही जाता है। ऐसे समय में धर्मध्यान करनेवाले आराधक स्त्री-पुरुषों की असुविधाओं को दूर कर उन्हें प्रकट या अप्रकट-गुप्त रूप से सहयोग देना तथा साधु-साध्वी, त्यागी संत महात्माओं को पतन की राह से बचा कर उन्हें सविनय स-प्रेम आराधना के सन्मार्ग में दृढ़ बनाने का भरसक प्रयत्न करना सम्यग्दर्शन का छठा स्थिरीकरण अंग है। (७) वच्छलमानव के साथ बाप-बेटे, सासु-बहु, भाई-बहन, साला-सालियाँ आदि परिवारिक संबंध तो अनादि काल से बनता-बिगड़ता चला आ रहा है। किन्तु सहधर्मी बन्धु का साथ तो बिना भाग्य के ढूंढने पर भी नहीं मिलता। परिवार का भरण-पोषण, उनके शिक्षण की व्यवस्था तो आपके लिये एक अनिवार्य बंधन है। यदि आप इस कार्य में टालम-टोल भी करेंगे तो आपका परिवार आपसे शासन द्वारा अपने अधिकार की निधि निश्चित ही ले लेगा। किन्तु आपके सह-धर्मी बन्धु जहाँ तक उनका बस चले, वहाँ तक वे कदापि आपके सामने अपना हाथ नहीं पसारेंगे। उनकी असुविधाओं का अंत और अभ्युदय आपकी सत्-भावना पर निर्भर है । " सगपण मोटो साहमीतणो" स्व-धर्मी को सम्यग्दर्शन आराधक तत्त्व-चिंतक तप-त्याग धर्मरसिक सुशिक्षित बना देना अक महान् सेवा है । यही सम्यग्दर्शन का सातवां वात्सल्य अंग है।
पभावणा:- संसार में वीतराग के विशुद्ध आचार-विचार और उनके सिद्धान्त का प्रचार करना, चतुर्विध संघ शास्त्र प्रकाशन, जिनमंदिर और जीर्णोद्धार आदि धार्मिक कार्यों को प्रगतिशील बना जिन-शासन की प्रभावना करना सम्यग्दर्शन का आठयां प्रभावक अंग है।