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________________ जिसने खाने, बोलने में अपनी जबान वश कर ली उसने भानो साग संसार अपने वश कर लिया । हिन्दी अनुवाद सहित SARASHIFT25656 ३५१ है ऐसे भगवान अरिहंत-देव को हमारा त्रिकाल कोटि कोटि वंदन हो । मेरे सन्मित्रो! व श्रीसिद्धचक्र व्रताराधक स्त्री-पुरुषो! आप भी ऐसे परम वीतराग श्रीअरिहंत भगवान को बार-बार बंदन कर अपना मानवभत्र सफल करें। आठ प्रातिहारज जस छाजे, पांत्रिस गुण युत वाणी । जे प्रति बोध करे जग जनने, ते जिन नमिये प्राणी रे ॥भ. सि.॥५॥ विचरते हैं, उस पथ के वृक्ष उनको झुक-झुक कर प्रणाम करते हैं । (१९) देव आकाश में दु'दुभि बजाते हैं । ऐसे चौतोस अतिशय-युक्त भगवान श्री अरिहंत देव को हमारा कोटि-कोटि त्रिकाल वंदन हो । +वाणी के पैंतीस गुणः-(१) भगवान की लोकप्रिय भाषा अर्धमागधी है। (२) भगवान को वाणी एक योजन-चार कोस के घेरे में बैठे सभी प्राणी को समान रूप से सुनाई देती है। (३) भगवान की वाणी बड़ी सरल और हृदयस्पर्शी शब्दों से ओतप्रोत होती है । (४) भगवान को वाणी मेघ के सदृश गंभोर और सुखद होतो है । (५) भगवान को वाणी समयानुकूल और बड़ी संतोषप्रद होती है। (६) प्रत्येक श्रोता यही समझता है कि भगवान मुझ से ही बात कर रहे हैं। (७) भगवान को वाणी धाराप्रवाहो और महत्त्वपूर्ण होती है। (९) वाणो निर्विरोध स्पष्ट होती है। (१०) पाशी अनर्गल और मिथ्या शब्दों से रहित होती है (११) वाणी निःसंदेह, (१२) निदोष होती है। (१३) वाणी बारीक से बारीक विषय की और सरल होती है। (१४) (१५) वाणी रुचिकर (१६) और षट् द्रव्य नवतस्व आदि व्यानुयोग से सम्बन्धित होती है। (१०) वाणी विषय, प्रयोजन, सम्बन्ध आदि साहित्यिक नियमानुसार होती है। (१८) पाणी काव्य समान बड़ी प्रिय होती है। (१९) भगवान नय-निक्षेपादि तत्त्वों का वर्णन ऐसे आकर्षक ढंग से करते हैं (२०) कि श्रोतागण उस अनूठे विषय की चर्चा में षद रस भोजन के सामने आँख उठा कर भी नहीं देखते हैं। (२१) भगवान अपने उपदेश में कदापि किसी का कटाक्ष नहीं करते हैं। (२२) उनके उरदेश में प्रत्येक बात उपयोगो, घमिक, निष्कपट (२३) और दीपक के समान स्पष्ट अज्ञानांधकार नाशक ही होती है। (२४) उनको वाणी सदा मात्म-प्रशंसा और परनिंदा से दूर रहती है। (२५) भगवान की वाणी में कर्ता, कर्म, क्रिया, लिंग, कारक आदि व्याकरण की अशुद्धि ढूढने पर भी नहीं मिलती है (२६) अतः श्रोतागण हृदय से स्वीकार कर लेते हैं कि प्रभा ! आप निश्चित ही सर्वगुणसंपन्न हैं (२५) वे वाणी सुन-सुन कर आश्चर्यचकित हो आनंद विभोर हो उठते हैं। (२८) भगवान न अति धीरे मौर (२९) न भति शीघ्र ही बोलते हैं (३०) कि जिससे श्रोतागण के हृदय में कोई भ्रम पैदा न हो (३१) भगवान जिनेन्द्र प्रसन्न मन हो ऐसी सुन्दर मधुर भाषा बोलते हैं कि उसे मनुष्य, देव, पशु-पंखी सभी बड़े सरल ढंग और आनंद से समन्म लेते हैं । (३२) अतः उनके शिष्यवगं की बुद्धि का विकास होता है (३३) भगवान प्रत्येक विषय को भांति-भांति से समझाते हैं (३४) जिससे उनकी वाणी में पुनरुक्तिदोष भी नहीं लगे। (३५) और श्रोतागण को समझने में सिर पचाने का भी फष्ट न करना पड़े। ऐसे परम तारक पैतिस गुण अलंकृत श्री अरिहंत भगवान को हमारा कोटि-कोटि त्रिकाल वंदन हो।
SR No.090471
Book TitleShripalras aur Hindi Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherRajendra Jain Bhuvan Palitana
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size12 MB
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