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बाहर तेरे सुख है नाही, सुख है तेरे भीतर । अन्तम ख तो हो जा रे मन! मत दौडे अब बाहर ।। हिन्दी अनुवाद सहित - %
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दोहा इम सांभली श्रीपाल नृप, चिते चिन मझार | अहो अहो भव नाटके, लहिये इस्या प्रकार ॥ १ ॥ कहे गुरू प्रते हवणा नथी, मुज चरित्रनी सत्ती । करि पसाय तिणे उपदिसौ, उचित करण पडिवत्ति ॥ २ ॥ वलतु मुनि भाखे नृपति, निश्चय गति तू जोय । करम भोग फल तुज घणु, इह भव चरण न होय ॥ ३ ॥ पण नवपद आराधतां, पामीश नवमुं सर्ग। नर सुर सुख क्रमे अनुभवी, नवमें भव अपवर्ग ॥ ४ ॥ ते सुणी रोमांचित हुओ, निज धर पहोंतो भूप । मुनि पण विहरतो गयो, ठाणांतर अनुरूप ॥ ५ ॥
अनुगृहीत करें:-सम्राट् श्रीपालकुवर राजर्षि से अपने पूर्व-भव का घटनाचक्र सुन आश्चर्यचकित हो गए । अब तो पूर्ण रूप से उनकी अंतरात्मा मान गई कि सचमुच
कहीं सौदा न जमा । किसी ने कहा सेठ ! आपको इतना थोक माल लेना है तो क्यों इतनी उतावल करते हो। बाजार तो दिन पर दिन गिर रहे हैं। आज नहीं तो कल | सेठ ने सोचा वास्तव में बात ठीक है, पैसे देकर माल लेना है फिर देखा जायगा । महंगा माल क्यों लू' अभी पूरा एक वर्ष पड़ा है। जब बाहूगा तब मालामाल हो जाऊंगा। धनपाल के बाप-दादे बड़े नामी सुप्रसिद्ध सेठ थे अत: उनके नाम से चारों ओर बाजार खुला था, धनपाल कहीं भी जाता उसे दुकानदार बड़े आदर से मन चाहा माला उधार दे, उसे बिना पानी से घोटते देर न करते ।
धनपाल के तो दिन पर दिन रंग बदलने लगे, अब बह तो धनपाल की जगल धनासा वन गया । संत-महात्मा के आशीर्वाद मिले फिर क्या कहना ! धनपाल को उदय-अस्त का पता नहीं। वह सदा बाजार से लोह लेने की सोचता किन्तु उसे अपने अतिथि और परिवार के लोगों की हो जी, हाँ जी में अवकाश ही न मिलता। संध्या हुई उसे अपना कार्य सिद्ध करने की याद आती तो उघर बाजार बन्द हो जाता। कल-कल करते पूरा वर्ष बीत गया भोर होते ही तीर्थयात्रा कर महारमा आ टपके । उनकी सूरत देख सेठ की आँखें फटी की फटी रह गई। महात्माजी अपना चमत्कारिक मणि ले वन में पधार गये । प्रमादी सेठ हाथ मलता रह गया।