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द्वितीया अन्वयार्थ - श्रीवर्धमानेरितम् = भगवान महावीर द्वारा बताया गया,
श्रीजिनराज-धर्मकथनं = श्रीजिनराज प्रणीत धर्म के कथन वाला. नानाभ्रमर्वसनम् = अनेक प्रकार के भ्रमों का नाश करने वाला, ईदृक् = ऐसा (यतः = जो), श्रीसम्मेदगिरिप्रमाणफलं = श्रीसम्मेदशिखर सम्बन्धी प्रामाणिक फल, लोहाचार्यवरेण = लोहाचार्य मुनिवर्य द्वारा, भूयः = फिर से. उदितं = प्रगट हुआ है, तत् = उसको, श्रुत्वा = सुनकर, अखिलाः सज्जनाः = सभी सज्जन पुरुषों, भावसहिताः = भावना से परिपूर्ण होकर, सर्वार्थसिद्धिप्रदं = सर्वार्थसिद्धि प्रदान करने वाले, सम्मेदं प्रति = सम्मेदशिखर की ओर, यान्तु = जाओ अर्थात्
सम्मेदाचल की यात्रा करो। श्लोकार्थ - भगवान महावीर द्वारा बताया गया, जिनराजों द्वारा बताये धर्म
का कथन करने वाला तथा उनेक म्रमों का निवारण करने वाला इस प्रकार जो यह सम्भदशिखर का प्रामाणिक फल वर्णन मुनिवर्य लोहाचार्य ने पुनः उदित किया है, उसको समी सज्जनपुरूष भावसहित अर्थात् तीर्थवन्दना की सच्ची भावना से परिपूर्ण होकर सर्वार्थसिद्धि प्रदान करने वाले सम्मेदशिखर की ओर जाओ। यहाँ कवि ने सम्मेदाचल की यात्रा हेतु हम सभी सज्जनों को उत्साहित किया है तथा अपने इस वर्णन को लोहाचार्य द्वारा उदित हुआ था' - ऐसा कहकर
प्रामाणिक बनाया है। (इति देवदत्तकृते सम्मेदशिखरमाहात्म्ये श्रीमदजितेशकथाद्धारतत्परः श्रीसगरचक्रवर्तियात्रा-वृतान्त नामा द्वितीयोऽध्यायः।) इस प्रकार देवदत्त कवि विरचित सम्मेदशिखरमाहात्म्य में तीर्थङ्कर अजितनाथ की कथा को प्रगट करने वाला तथा श्री सगर चक्रवर्ती की यात्रा वृत्त की सूचना
देने वाला द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ ।}