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श्री सम्मेदशिखर माहात्स्य = सगर, पुनः = फिर से, वचनं = वचन को, अब्रवीत् = बोला। श्लोकार्थ - चारणऋद्धिधारी मुनिराज के ऐसे वचन सुनकर हर्ष से
आनन्दित यह सगर चक्रवर्ती पुनः वचन बोलने लगा। श्रीमतो जितनाथस्य कथां सङ्कपतो मुने।
श्रोतुमुत्साहवानस्मि कथयस्व यथाक्रमम् ।।५१।। अन्वयार्थ - मुने = हे मुनिराज!, (अहं = मैं), संक्षेपतः = संक्षेप से. श्रीमतः
= अनन्त लक्ष्मी के धनी, अजितनाथस्य = तीर्थकर अजितनाथ स्वामी की, कथा = कहानी को, यथाक्रम = क्रमानुसार, श्रोतुं = सुनने के लिये, उत्साहवान् = उत्साह
रखने वाला, अस्मि = हूं, (त्वं = तुम). कथयस्व = कहिये। श्लोकार्थ - हे मुनिराज! मैं श्रीमान अनन्तलक्ष्मीपति तीर्थेश अजितनाथ
स्वामी की कथा क्रमानुसार संक्षेप से सुनने के लिये आतुर
या उत्साहवान् हूं, कृपया उसे कहिये । चक्रिवाक्यामिति श्रुत्वा मुखेन्दुरदनांशुभिः ।
हलादयन्तन्मनो नूनं मुनिः पुनरूवाच तम् ।।५२।। अन्वयार्थ - इति = इस प्रकार, चक्रिवाक्यं = चक्रवर्ती के वचन को, श्रुत्वा
= सुनकर. मुखेन्दुरदनांशुभिः = जैसे चन्द्रमा अपनी स्वच्छ कांति से वैसे ही मुख में दन्त पंक्ति की धवलिम कान्ति से, तन्मनः = चक्रवर्ती के मन को, हलादयन = प्रसन्न करते हुये, मुनिः = मुनिराज, नूनं = निश्चित ही, पुनः = फिर से,
तं = उस चक्री को, उवाच = बोले।। श्लोकार्थ - इस प्रकार चक्रवर्ती के वचन को सुनकर जैसे चन्द्रमा अपनी
स्वच्द कांति से लोगों के मन को प्रसन्न करता है वैसे ही अपने मुखरूपी चन्द्र में विद्यमान दांतों की स्वच्छ कान्ति से चक्रवर्ती को प्रसन्न करते हुये मुनिराज निश्चित ही उससे
बोले। जम्बूद्वीपे विदेहे वै पूर्वस्मिन्साधुसफूले । सीतादक्षिणदिग्भागे वत्साख्यो देश उत्तमः ।।५३।।