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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य द्वात्रिंशत्सागरायुश्च तत्प्रमाणसहस्रतः । वर्षेभ्यः परमाहारं मानसं समुपाहरत् ।।२२।। द्वात्रिंशत्पक्षगमने श्वासोच्छवासं गतोभवन् । इत्थं तत्र महानन्दभृद् भूत्वान्ते स चायुषः ।।२३।। तद्भोगेभ्यः महद्भ्योऽपि ड्यनाकृष्टः स देवराट् ।
कर्मक्षयं विचिन्त्यापि भूमाववतितीर्षुताम् ||२४ ।। अन्वयार्थ - च = और, तत्र = वहाँ, द्वात्रिंशत्सागरायुः = बत्तीस सागर
की आयु वाला होकर, तत्प्रमाणसहस्रतः = आयु के बराबर प्रमाण में उतने हजार अर्थात् बत्तीस हजार, वर्षेभ्यः = वर्षों से. मानसं = केवल मानसिक. परमाहारं = उत्कृष्ट अमृत आहार को. समुपाहरत् = लेता था, द्वात्रिंशत्पक्षगमने = तेतीस पखवाड़े बीत जाने पर, श्वासोच्छवासं = श्वासोच्छवास को, गतः = प्राप्त, भवन् - होता हुआ. सः = वह महाबल नामक देव, इत्थं - इस प्रकार, महानन्दभृत् = महान् आनन्द से परिपूर्ण, भूत्वा = होकर, आयुषः = आयु के. अन्ते = अन्त में, महद्भ्यः भोगेभ्यः = विपुल भोगों से, अपि = भी, अनाकृष्टः = आकृष्ट न होता हुआ, सः = वह, देवराट् = देवराज अहमिन्द्र, कर्मक्षयं = कर्मों के क्षय को, अपि = भी. विचिन्त्य = सोचकर, भूमौ = पृथ्वी पर, अवतितीर्घताम् = अवतरित
होने का इच्छुक हुआ। श्लोकार्थ - सोलहवें स्वर्ग में महाबल बत्तीस सागर प्रमाण आयु वाला था।
बत्तीस हजार वर्षों के बाद वह मात्र इच्छारूप उत्कृष्ट अमृत का आहार किया करता था। बाईस पक्ष बीतने पर श्वासोच्छवास को प्राप्त हुआ वह उस स्वर्ग में महान् आनन्द से परिपूर्ण होकर रहता था। इस प्रकार आयु का अन्तिम समय आने पर उस देवराज ने महान या विपुल भोगों से भी अपने को दूर रखकर अर्थात् अनाकृष्ट रहते हुये, कर्मों के क्षय का विचारकर भूतल पर अवतरित होने की इच्छा वाला हुआ। '