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द्वितीया
तेषां
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निर्वाणकल्याणे संशयो मे महान्प्रभो । ज्ञानं विना महाराज ! दुर्वारा कर्मणां गतिः ||४|| अन्वयार्थ अत्र = इस संसार में, ये जो, संसारिणः संसारी, जीवाः = जीव, नानाभ्रमभराकुलाः = अनेक भ्रमों से भ्रमित बुद्धि वाले और व्याकुल चित्त, (सन्ति = हैं). ते = वे संयमव्रतसाधने संयम व व्रतों का पालन करने में, सर्वदा = हमेशा, हिन् ही असमर्थ असमर्थ, ( भवान्त होते हैं), प्रभो! हे प्रभु. तेषां = उनके निर्वाणकल्याणे = निर्वाण अर्थात् मोक्ष प्राप्ति रूप कल्याण होने में, मे मेरा, महान् - बहुत बड़ा, संशयः संदेह, (अस्ति है), महाराज! हे महाराज!, ज्ञानं विना = ज्ञान के बिना, कर्मणां गतिः - कर्मों की गति, दुर्वारा दुर्निवार अर्थात् कठिनाई से रोकी जाने वाली, (अस्ति = है ) ।
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श्लोकार्थ इस संसार अटवी में जो जीव नाना भ्रमों से भरे हुये अर्थात्
भ्रमबुद्धि वाले तथा व्याकुल चित्त हैं वे जीव संयम की साधना करने में एवं व्रतों का पालन करने में हर समय असमर्थ होते हैं, हे भगवान् उन्हें मोक्ष प्राप्ति रूप कल्याण के होने में मुझे बहुत बड़ा संशय है। हे महाराज! ज्ञान के बिना कर्मों की गति बड़ी कठिनाई से रोकी जाने वाली होती है। चोर्गं तपो विना ज्ञानं नैव नाथ! प्रजायते । संयमं व्रतरूपं तत्तेषु ते तेषां समीपवर्ती यः स्वल्पायासो महाप्रभो । तन्न निर्वाणसन्मार्गोऽधुना स चोपदिश्यताम् ।।६।।
नाधिकारिणः ॥ १५॥
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अन्वयार्थ नाथ! हे स्वामिन्!, ज्ञानं विना ज्ञान के विना, उर्ग तपः = उत्कृष्ट तप, च = और, तपः विना = तप के विना, उर्ग ज्ञानं = उत्कृष्ट ज्ञान, नैव नहीं ही, प्रजायते = उत्पन्न होता है, तत् = वह तप, संयमं संयम (च = और), व्रतरूपं = व्रतपालन रूप, (भवति होता है), तेषु = संयम, व्रतपालन रूप तप करने और ज्ञान पाने में, ते = वे संसारी जीव,
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૪૬
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