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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य हुर्य एक वर्ष तक उग्र व महान् तपश्चरण किया । चैत्र कृष्णप्रतिपदि तपस्सन्दग्धकल्मषः ।
देवदारूतले ज्ञानं केवलं प्राप्तवान् प्रभुः ||३७।। अन्वयार्थ - तपस्सन्दग्धकल्मषः -- तपश्चरण से जला दिये कर्म कलंक
जिन्होंने ऐने i : -- म ने, चैत्र कृष्णप्रतिपदि = चैत्र कृष्णा एकम के दिन, देवदारूतले = देवदारूवृक्ष के नीचे, केवलं = केवल, ज्ञानं = ज्ञान को प्राप्तवान = प्राप्त कर
लिया। श्लोकार्थ · तपश्चरण से अपने कर्म कलंक को जला देने वाले उन प्रभु
ने चैत्र कृष्णा एकम को देवदारू वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया। कृते समवसारेऽथ धनदेनाद्भुते विभुः ।
सहस्रसूर्यसदृशः स्वतेजोमण्डलाद्वभौ ।।३८।। अन्वयार्थ - अथ = इसके बाद, धनदेन = कुबेर द्वारा, कृते = रचे गये.
अद्भुते = अद्भुत अर्थात् आश्चर्यकारी, समवसारे = समवसरण में, स्वतेजमण्डलात् = अपने तेज प्रभामण्डल के कारण, विभुः = भगवान्, सह सूर्यसदृशः = हजार सूर्यों के
समान, बभौ = सुशोभित हुये। श्लोकार्थ - इसके बाद कुबेर द्वारा रचे गये अद्भुत समवसरण में अपने
प्रभामण्डल के कारण भगवान् हजारों सूर्य के समान सुशोभित हुये। तत्रोक्तगणनाथाथैः स्तुतो द्वादशकोष्ठगैः ।
यन्दितः पूजितस्सर्वैः ददर्श कृपयाखिलान् ।।३६ ।। अन्वयार्थ - तत्र = उस समवसरण में, उक्तगणनाथाद्यैः = शास्त्र में
जिनके नाम कहे गये हैं उन गणधर आदि द्वारा, स्तुतः = स्तुति किये जाते हुये, (च = और), द्वादशकोष्ठगैः = बारहों कोठों में स्थित, सर्वः = सभी भव्य जीवों द्वारा, वन्दितः = बन्दना किये गये, पूजितः = पूजा किये गये, (प्रभुः = भगवान्
ने), कृपया = कृपा से, अखिलान् = सभी को, ददर्श = देखा | श्लोकार्थ - उस समवसरण में गणधरों द्वारा एवं बारहों कोठों में स्थित