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________________ ५८३ एकविंशतिः गयी पालकी पर चढ़कर मोक्ष पाने हेतु दीक्षा के लिये सहेतुक वन में पहुंच गये। वहाँ उन्होंने पौष कृष्णा दशमी के दिन तीन सौ राजाओं के साथ मुनिदीक्षा को ग्रहण कर लिया क्योंकि सचमुच ही मोक्षपद सज्जनों साधुओं को ही प्राप्त होता है साधुताविहीन लोगों को नहीं। चतुर्थबोधं सम्प्राप्य तथैवाहिह्न द्वितीयके । भिक्षायै गुल्मनगरं सम्प्राप्तोऽयं यदृच्छया ||३४।। अन्वयार्थ - तदैव = तभी ही, चतर्थबोधं - चौथे मन पर्ययज्ञान को. सम्प्राप्य = प्राप्त करके, अयं = यह मुनिराज, द्वितीयके = दूसरे, अनि = दिन, यदृच्छया = स्वाधीन संयोगवश, भिक्षायै = आहार के लिये, गुल्मनगरं = गुल्म नगर को, सम्प्राप्तः = प्राप्त हुये। श्लोकार्थ - तभी चौथे मनःपर्ययज्ञान को प्राप्त करके यह मुनिराज आहार हेतु सहज संयोगवश गुल्म नगर में पहुंच गये। धन्याख्यो नृपतिस्तत्र गोक्षीराहारमुत्तमम् । ददौ सम्पूज्य तं समासा पटमदारतापाकम् ।।३!! अन्वयार्थ - तत्र = वहाँ उस नगर में, धन्याख्यः = धन्य नामक, नृपतिः = राजा ने, भक्त्या = भक्ति भाव से, तं = उनको, सम्पूज्य = पूजकर, उत्तमम् = उत्तम, गोक्षीरम् = गोदुग्ध, आहारम् - आहार को, ददौ = दिया, (च = और), आश्चर्यपञ्चकम = पंचाश्चर्यों को, अपश्यत् = देखा। श्लोकार्थ - उस नगर में धन्य नामक राजा भक्तिभाव से उन मुनिराज की पूजा करके उन्हें गोदुग्ध का उत्तम आहार दिया और पंचाश्चर्यों को देखा। तपोवनमथ प्राप्य वषमेकं स मौनभाक् | महत्तीनं तपस्तेपे सहमानो परीषहान् ||३६ ।। अन्ययार्थ - अथ - इसके बाद, तपोवनम् = तपोवन को, प्राप्य = प्राप्तकर, परीषहान् = परीषहों को, सहमानः = सहते हुये, मौनभाक = मौन व्रत वाले, सः = उन मुनिराज ने, एक = एक वर्ष = वर्ष तक, तीव्र = तीव्र उग्र. महत् = महान्, तपः = तपश्चरण को. तेपे = तपा। श्लोकार्थ - इसके बाद उन मुनिराज ने मौनव्रत सहित परिषहों को सहते
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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