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विंशतिः
आगमत् = आया, तत्र = वहाँ पर, हि = ही. वसन्तसेननामानं
= बसन्तसेन नामक. मुनि = मुनिराज को, ददर्श = देखा। श्लोकार्थ - एक दिन वह मेघदत्त विजय नामक वन में आया जहाँ पर
उसने बसन्तसेन नामक मुनिराज को देखा। प्रणम्य सादरं राजा तं मुनिं तत्त्वदर्शिनम् |
अपृच्छच्छ्रेयसो मार्ग मुमुक्षुर्मोक्षसिद्धये ||६१।। अन्वयार्थ - मुमुक्षः = मोक्षागिलाषी, राजा राजा ने, तं = उन, तत्त्वदर्शिनं
- तत्त्वदृष्टा, मुनि = मुनिराज को, सादरं = आदर सहित, प्रणम्य : प्रणाम करके, मोक्षसिद्धये = मोक्ष पाने के लिये,
श्रेयसः = मोक्ष के मार्ग = मार्ग को. अपृच्छत् = पूछा। श्लोकार्थ · उस मुमुक्षु राजा ने उन तत्त्व दृष्टा मनीषी मुनिराज को आदर
सहित प्रणाप कारको मातु को बाप को पूछा। तदा तेन मुनीशेन सम्मेदाख्यमहीभृतः। उक्तो मित्रधराख्यस्य कूटस्य महिमा गुरुः ।।२।। श्रुत्वा भूपोऽपि सन्तुष्यानन्दभेरीमयादयत्।
महासार्थानुगः शीघ्रं यात्रायै स चचाल हि ।।३।। अन्वयार्थ · तदा = तभी, तेन = उन, मुनीशेन = मुनिराज द्वारा,
सम्मेदारख्यमहीभृतः = सम्मेदशिखर पर्वत के, मित्रधराख्यस्य = मित्रधर नामक, कूटस्य = कूट की, गुरु = अत्यधिक, महिमा - महिमा, उक्तः = कही, श्रुत्वा - सुनकर, (च = और), संतुष्य = संतुष्ट होकर, भूपः = राजा ने. अपि = भी, आनन्दभेरीम् = आनन्दभेरी को. अवादयत् = बजवाया, (तथा च = और), महासार्थानुगः = महासंघ का अनुगामी, सः = वह राजा, शीघ्रं = जल्दी, हि = ही, यात्रायै = यात्रा के लिये,
चचाल = चल दिया। श्लोकार्थ - तब उन मुनिराज के द्वारा सम्मेदाचल शिखर के मित्रधर कूट
की अत्यधिक महिमा बतायी गयी जिसे सुनकर और संतुष्ट होकर राजा ने भी आनंद भेरी बजवा दी और जल्दी ही वह राजा महान संघ का अनुगामी होकर यात्रा के लिये चल पड़ा।